देहरादून भ्रमण और दिल्ली वापसी
अब तक आपने पढ़ा की कैसे मेरा और रोहित का हरसिल यात्रा का प्लान बना, कैसे हम दिल्ली से उत्तरकाशी आये, कैसे उत्तरकाशी-हरसिल भ्रमण किया और कैसे हम उत्तरकाशी से देहरादून से आये...पहला भाग (दिल्ली से उत्तरकाशी ) पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें
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अब आगे...
ड्राइवर भाई साहब का हिसाब किताब किया और उन्हें राम राम कह के हम चल पड़े बस की ओर। ये सिटी बस थी और सवारियों से भरी हुई। हमे शहस्त्रधारा के साथ गुच्चू पानी और भी आस पास की चीज़े घूमने का मन था और अंतिम में स्टेशन के पास उतरना था। हमने इसमें जाना सही नहीं समझा। फिर दिमाग में एक उपाय आया ऑटो बुक करने का। रोहित को मैंने फिर से आगे भेज दिया। कुछ ऑटो वाले ने तो साफ़ मन कर दिया। कुछ देर बाद एक ऑटो वाला मान गया। सहस्त्रधारा, गुच्चू पानी और इनके रास्ते में पड़ने वाली बाकि चीज़ सब, लेकिन किराया 700 बोला। रोहित अपनी कला का प्रदर्शन करते हुए मोल भाव करने लगा। वो 500 पे आ के रुका और रोहित 400 पे। मुझसे रहा नहीं गया तो मैंने 500 में ही तय कर दिया। रोहित ने इस बात पे नाराज़गी दिखाई। बोला इससे भी कम पे आ जाता। मैंने भी कहा की चलो ठीक है, अब 100 के चक्कर में कितना बहस करेंगे, आधा करने पे 50 रूपए के लिए इतना बहस कौन करे अब। ऑटो में बैठ के हम चल पड़े शहस्त्रधारा की ओर। देहरादून में मोबाइल नेटवर्क (जिओ और एयरटेल) फुल थे ओर मैं गूगल मैप पे पूरी दुरी नापने लगा। अपने मन की सन्तुस्टि के लिए दुरी के हिसाब से किराया सही लगा मुझे।
शहर को पीछे छोड़ अब हम हलके पहाड़ी क्षेत्र में थे। किस्मत से हमारा ऑटो ड्राइवर मिलनसार था और हमे आस पास की जानकारी देने में कोई कमी नहीं कर रहा था। शहस्त्रधारा का मतलब इसके नाम में ही छुपा हुआ है। ये बहुत सरे झरनो से मिल के एक छोटी सी नहर या नदी बनी है। इसके पानी में सल्फर (गंधक) की मात्रा ज्यादा है और ये त्वचा के लिए अच्छा होता है। भले ही शहस्त्रधारा देहरादून में बहुत विख्यात है लेकिन मुझसे पूछो तो मुझे कुछ खास पसंद नहीं आया। ऑटो वाले ने पार्किंग से पहले ही हमें उतार दिया क्यूंकि अंदर जाता तो पार्किंग के पैसे बेमतलब के देने पड़ते जो हम तीनो को सही नहीं लगा। हमने ऑटो वाले से फ़ोन नंबर ले लिया और उसकी ऑटो का नंबर प्लेट की फोटो ले ली। वैसे थोड़ा डर तो था लेकिन उससे ज्यादा, बाद में ऑटो पहचानने की होने वाली दिक्कत से बचना था। कुछ सामान ऑटो में रख दिए जिसमे सिर्फ कपडे थे और एक बैग और पर्स लेके हम चल पड़े अंदर की ओर।
यहाँ सबसे पहले तो बच्चो के खेलने वाले टेंट लगे हुए थे। एक के बाद एक टेंट, दूकान भी कह सकते है। थोड़ी दूर आगे बढ़ने के बाद हमे रोपवे दिखा लेकिन उचाई और पैसे जोड़ के हिसाब किताब करने पे हमे कुछ खास नहीं लगा इसलिए हम आगे बढ़ चले। फिर नहाने और कपडे बदलने के कुछ लॉकर जैसे कुछ दुकाने दिखी। खैर हमे नहाने का मन नहीं था तो उसके बगल से निचे नदी के तरफ चले गए। उतनी देर की थकान के बाद मुझे पानी में अंदर जाने का मन नहीं था लेकिन रोहित का मन कुछ और ही था। उसने जूते खोले और पानी में थोड़ा अंदर चला गया। फिर शुरू हुई फोटो सेशन का दौर। जी भर हम दोनों ने एक दूसरे के फोटो निकाले।
शहस्त्रधारा नदी का बहाव यहाँ पे कुछ खास नहीं था। ये एक छोटे झरने की तरह बहता हुआ, पत्थरो के सीढ़ी नुमा रास्ते से होते हुए आगे बढ़ रहा था और हम इसमें नहाने के बदले सिर्फ फोटो सेशन कर रहे थे। मुझे ये जगह इसलिए कुछ खास नहीं लगी क्यूंकि ये एक फॅमिली पिकनिक स्पॉट की तरह हैं जहाँ लोग अपने परिवार खास कर बच्चो के साथ मज़े कर सकते है। अपने लिए तो कुछ खास नहीं, सिवाय नदी में नहाने के और हमने वो भी नहीं किया। शायद यहाँ अगर वयसायिकरण कम होती तो नदी की खूबसूरती सभी लोगो को पसंद आती, लेकिन जहाँ लोगो का आना जाना ज्यादा होगा वहाँ वयसायिकरण भी ज्यादा ही होगा। अब मैंने समय की कमी का हवाला देते हुए रोहित से वापस चलने को कहा। वापसी में धयान देने पे कुछ झरने भी दिखे जो पहाड़ो से बहते हुए नदी में जा के मिल रहे थे। वहाँ के दूकान वाले हमे बच्चो वाले खेल खेलने के आमंत्रित भी कर रहे थे लेकिन अपनी उम्र को देखते हुए हम आगे बढ़ चले अपने ऑटो के पास। ऑटो वाला बहार आसानी से मिल गया।
उत्तरकाशी में जितनी ठण्ड थी यहाँ उतनी की गर्मी जो की हमे परेशान कर रही थी। अब हमे रॉबर्स केव/ गुच्चू पानी जाना था। पहाड़ी रास्ते होते हुए फिर आगे बढ़ चले। रास्ते में छोटे हेलीकॉप्टर नजदीक से देखने का भी मौका मिला। ऑटो वाले भैया ने बताया की देहरादून घूमने के लिए 2 दिन काफी है और आप आराम से सभी जगह घूम सकते है। फिर ऑटो वाले हमे एक मंदिर के सामने उतारा और कहाँ की आप लोग दर्शन कर आओ। उसने हमसे यही कहा की ये जगह आप मेरी तरफ से घूम लो आप लोग अच्छे आदमी हो। उसने ये भी कहाँ की ये मंदिर रास्ते में नहीं आता लेकिन मैं जान के इधर से आया ताकि आप दोनों दर्शन कर सको। हमे उसकी बातो में अपनापन सा लगा और मंदिर में दर्शन कर आये।
करीब आधे घंटे में हम थे गुच्चू पानी के पास। ऑटो वाले ने फिर कहाँ की मैं बहार ही रहूँगा, आप दोनों आराम से अंदर से हो आओ। अब हमे ऑटो वाले पे भी भरोसा हो गया था। हमने ऑटो वाले भैया से कहा ही आप भी साथ चलो, कभी कभी आते होंगे इस बार हमारे साथ ही अंदर चल लो। उन्होंने विनर्मता पूर्वक मना कर दिया और ये बताया की कुछ खास मौके पे वो यहाँ पे आते है और पूरा दिन बिताते है। हमने अपने बैग, जूते सब ऑटो में ही रखे इसबार और सिर्फ पर्स और मोबाइल ले के अंदर चले। यहाँ टिकट भी लगता है, वैसे कोई खास दाम नहीं है यहाँ के टिकट का। एंट्री गेट से आपको यहाँ कुछ दूर पैदल चलना पड़ता है। हमे गुस्सा आ रहा था की हमने जूते क्यों खोल दिए। करीब 400 मीटर अंदर चलने के बाद कुछ दूकान शुरू हो जाती है। यहाँ दुकानों कर्म संख्या में थी इसका मतलब ये था सरकार की तरफ से दूकान आयोजित की हुई थी। उसके बाद कुछ लॉकर्स और कपडे बदलने के रूम भी थे।
इतने समय तक यहाँ वाली नदी हमारे किनारे पे बह रही थी। लेकिन अब रास्ता खत्म और सामने सिर्फ कुछ छोटी चट्टान और बहता हुआ पानी। इसमें बहुत सरे लोग खरे थे, पानी सिर्फ घुटने भर ही थे। गुच्चू पानी की तस्वीर जब आप इंटरनेट पे देखेंगे तो आपने एक अलग सा रोमांच आ जायेगा। ये दोनों तरफ चट्टान से घिरा हुआ बहता हुआ पानी है और पानी भी सिर्फ घुटनो भर। सोच के ही मज़ा आ गया ना। अब हमसे भी रहा नहीं गया और अपनी जीन्स मोड़ के पानी पे घुस गए। ये एक गुफा की तरह अंदर करीब 600 मीटर तक जाता है और पुरे गुफा में पानी घुटने या कमर से थोड़ा निचे तक ही है। यहाँ भी नहाने का अच्छा उपाय है लेकिन हमे क्या, हमे तो नहाना ही नहीं था। आप लोग भी सोच रहे होंगे ना कैसे दोनों लोग है इतनी अच्छी अच्छी जगह पे गए और नहाये भी नहीं। इसका ये कारण था की एक तो हमने सुबह ही नहा लिया था और फिर कही नहाते तो गीले कपड़ो को रखने में दिक्कत थी, बैग पहले से भरे हुए थे ऊपर से गंगा जल के कुछ डिब्बे भी।
अभी हम गुफा के शुरुवात पे थे और हमारे आनंद की कोई सिमा नहीं थी। कुछ लोग हुरदंग करते हुए पानी का मज़ा ले रहे थे तो कुछ शांति से। हम अपने फ़ोन को उनके पानी के छिटो से बचाते रहे और खुद पानी में संभल से फोटो खीचते रहे। अब हमे थोड़ा अंदर जाने का मन हुआ और अंदर चल पड़े। पानी में अंदर जाते ही पानी की स्तर कभी थोड़ा बढ़ जाता तो कभी घट जाता लेकिन हमारी जांघो से ऊपर कभी नहीं गया। थोड़ा डर भी लग रहा था क्यूंकि बहार तो ज्यादा लोग लेकिन अंदर बढ़ने के लोगो की संख्या कम होने लगी। थोड़ी देर अंदर जाने के बाद करीब 100 मीटर, हमे और आगे की हिम्मत नहीं हुई। एक तो शांति ऊपर से पानी की सिर्फ आवाज़ और लोग भी नहीं थे। जैसे ही हम वापस मुड़े बहार आने को तभी अंदर से कुछ आवाज़ आयी, हमने मुड़ के देखा तो कुछ लड़के और भी अंदर चले गए थे और मौज़ मस्ती कर रहे थे।
अब हम वापस बहार आ गए थे। हमारी जीन्स भीग गयी थी और धुप अब अच्छी लग रही थी। कुछ देर हमने वही पे आराम किया और अपने जीन्स से पानी बहने दिया। वहाँ पे कुछ खाने का मन किया लेकिन रेट सभी दुकानों पे दोगुना था। अब हम इतने बड़े रहीश नहीं जो आराम से पैसे उड़ाते। इसलिए वहाँ से निकल आये। बहार ऑटो वाले सामने ही थे और कुछ दुकाने भी थी। हमने वहाँ से कुछ नमकीन ले लिए जो की सही दाम पे उपलब्ध थे। अब करीब 5 बजे गए थे, शाम होने लगी थी और हमे ऑटो वाला स्टेशन के पास उतरने वाला था। थोड़ी देर वहाँ और समय बिता के हम चल पड़े स्टेशन की ओर। ऑटो वाले भैया ने हमे स्टेशन के पास ही उतार दिया, हमने उन्हें पुरे पैसे दिए साथ धन्यवाद भी कहाँ हमारे साथ समय बिताने और घूमने के लिए ।
अब करीब 6 बज रहे थे और हमारी ट्रैन रात 11:35 पे थी। हमारे पास सामान भी था तो कही घूमने का बन भी नहीं पा रहा था। तभी हम दोनों के दिमाग में विचार आया की अगर सामान कही रखने का बन गए तो हम आस पास के मार्किट घूम के रात 9-10 तो बजा ही लेंगे और उसके बाद ट्रैन का इंतज़ार करेंगे। सामान रखने के लिए देहरादून स्टेशन का क्लॉक रूम से बेहतर क्या होगा लेकिन मेरे पास ताला नहीं था। क्लॉक रूम में सामान रखने से पहले पहले आपको अपने बैग में ताला लगाना अनिवार्य है वार्ना वो आपका बैग जमा ही नहीं करेंगे। रोहित के पास ताला था, सभी सामान और रोहित को क्लॉक रूम के पास छोड़ के मैं बहार निकल गया ताला ढूंढ़ने। थोड़ी पूछताछ के बाद मुझे ताले चाभी की दूकान मिल गयी। कीमत मुझे ज्यादा लगी लेकिन मज़बूरी में लेना पड़ता है। वापस आ के बैग में ताला लगाया, गंगा जल के सभी डिब्बे को एक बड़ी बैग में डाल के रस्सी से बांध दिया। पर्ची कटवाई और बहार चल पड़े देहरादून मार्किट की ओर।
सब जगह की मार्किट तो एक जैसे ही होती है, वही कुछ दुकाने, कुछ भीड़ और कुछ चाय नास्ते के दूकान। रात में ना सो पाने के कारण और दिन भर के थकान के कारण अब चलने का बिलकुल भी मन नहीं कर रहा था। कुछ देर मार्किट में घूमने के बाद हमे गोल गप्पे और पाव भाजी की ठेली दिखी। हमसे रहा नहीं गया तो सिर्फ टेस्ट करने के बहाने हम एक एक प्लेट चट कर गए। अब तो पेट भी फुल और चला भी नहीं जा रहा तो वापस स्टेशन आने पे ही आराम करने का सोचा। अब जैसे हम स्टेशन पे वापस आये तो मेरी नज़र डिस्प्ले बोर्ड पे पड़ी। ये क्या? नैना देवी एक्सप्रेस ट्रैन कैंसिल कर दी गयी है। मुझे विश्वास नहीं हुआ तो मैंने रोहित को कन्फर्म करने को कहाँ। वो पूछताछ केंद्र से हो आया और उसका जवाब भी वही था। ट्रैन कैंसिल कर दी गई है। कारण का कुछ पता नहीं चला।
अब हमे चिंताओं ने घेर लिया। अब वापस दिल्ली कैसे जायेंगे। अगले दिन ऑफिस तो जाना ही है। क्या करे? कैसे जाये? मैंने अपने भैया को फ़ोन कर के सूचित कर दिया ट्रैन कैंसिल हो गयी है और हमारा ट्रैन वाला टिकट कैंसिल कर दो, TDR फाइल कर दो, जो भी हो कर दो। रोहित का भी वही कहना था की कल तो हर हाल में ऑफिस जाना ही है। हमने नेट पे रात वाली ट्रैन में टिकट देखने की कोशिश करि। वो कहते है ना सभी मुसीबत एक साथ ही आती है, हमारे फ़ोन में नेटवर्क बहुत धीरे धीरे आ रहे थे। खैर, बड़ी मुश्किल से ही सही सभी ट्रैन में वेटिंग लिस्ट की लम्बी संख्या देखने को मिली। अब जब कुछ समझ नहीं आ रहा तो रोहित से उमेश को फ़ोन मिला दिया। इस समय उमेश हमारे सामने एक उम्मीद की किरण थे और उन्होंने बिलकुल सही उपाय भी बताया। उन्होंने कहा की आप दोनों देहरादून ISBT चले जाओ वहाँ से आपको दिल्ली के लिए बस मिल जाएगी।
मैंने रोहित को कह दिया मैं साधारण वाली बस में नहीं जाऊंगा, मैं उतनी देर लोहे जैसे सीट पे सफर नहीं कर सकता। मुझे आराम करना है इसलिए AC या VOLVO वाले से चलेंगे। कभी कभी अमीरी वाली बातें भी कर लेता हूँ। हम तुरतं क्लॉक रूम से अपना सामान लिए और बहार रोड पे आ गए। यहाँ पे एक पुलिस वाले भाई साहब से ISBT जाने के रास्ता पूछा। उन्होंने बता दिया इधर से जो ऑटो वाले आएंगे उनसे पूछ के बैठ जाना, वो ISBT उतार देंगे। थोड़ी देर में एक ऑटो मिल गया। आगे जगह कम थी तो मैंने आगे बैठ गया और रोहित को पीछे बैठने को कह दिया। छोटे से रास्ते में भी, मैंने करीब 3 बार ऑटो वाले को कह दिया की भैया ISBT पे उतार देना। शायद नई जगह पे कुछ एतिहात बरतने की जररूत लगी मुझे, क्यूंकि एक दो बार मैं अपने गंतव्य से आगे बढ़ चूका हूँ ऐसे ही मामलो में और फिर दुबारा वापस आना पड़ जाता है। ऑटो वाला हमे ISBT के बहार सड़क पे उतार दिया, हमने उनसे पूछा अंदर जाने का रास्ता तो उन्होंने कहा की आप अंदर चले जाओ आपको पता चल जायेगा।
अंदर जाने के साथ ही हमे उत्तर प्रदेश परिवहन की साधारण बस सामने मिली और वो "दिल्ली, दिल्ली" चिल्ला रहा था। बस नहीं, बस का कंडक्टर चिल्ला रहा था। हम भी गोली की गति से उसके पास पहुंचे और पूछा 2 सीट मिल जाएगी। उसने कहा की आधी बस खाली है, जिधर सही लगे बैठ जाओ। अंदर जा के 3X2 वाली बस में 2 वाली सीट पे कब्ज़ा कर लिया। उम्मीद के विपरीत सीट काफी गद्देदार थी। हमने किराया पूछा तो कहा अभी बैठ जाओ, जब बस खुलेगी तब टिकट मिलेगा, हमने तुरंत पूछा की बस कितने देर में खुलेगी, उन्होंने कहा की थोड़ी देर में, ज्यादा से ज्यादा 15 मिनट या उससे कम। अब हम अपना सामान सेट कर रहे थे तभी ख्याल आया की बस हमे सुबह कितने बजे उतारेगी। फिर कंडक्टर के पास पहुंचे और आराम से पूछा की भैया दिल्ली कितने बजे तक उतार दोगे। उन्होंने कहा की सुबह 4 बजे तक। हमने भी सोचा सही है, सुबह थोड़ा इंतज़ार कर लेंगे 5 बजे मेट्रो चलने लगती है उससे निकल जायेंगे।
थोड़ी देर में बस लगभग भर चुकी थी और दिल्ली के लिए खुल गई। रोहित विंडो सीट पे बैठ के सोने लगा और मुझे नींद नहीं आ रही थी। थोड़ी देर चलने के बाद मौसन में ठण्ड बढ़ गई और ठंडी ठंडी हवा में कब आँख लगी, याद नहीं। भैया का फ़ोन आया तो नींद खुली, उन्होंने बताया की ट्रैन कैंसिल होने के कारण टिकट अपनेआप कैंसिल हो गया है और पूरा पैसा, पूरा पैसा वापस आ जायेगा। चलो कुछ तो अच्छा लगा की पूरा पैसा वापस आ जायेगा। फिर आँख लगी तो इस बार रूरकी बस स्टैंड में आँख खुली। बहुत सारे यात्री उतरे और कुछ ही चढ़े। बस अब आधे से ज्यादा खाली थी। रोहित 3 वाली सीट पे सोने चला गया और मैं 2 वाली सीट पे सो रहा था अब। दो रात से नींद पूरी नहीं हुई और दिन भर घूमना, शायद शरीर अब और नहीं सह सकता था इसलिए जैसे मौका लगता आँख लग जाती। फिर जब आँख खुली तो देखा की बस उससे भी ज्यादा खाली हो गई थी। अब मैं भी 3 वाली सीट पे जा के सो गया।
बस में अब इतने इतने ही लोग थे जितने 3 वाली और 2 सीट एक साथ थी, मतलब मुश्किल से 15 से 20 लोग होंगे। बस फिर एक ढाबे पे रुकी। ये जगह कुछ ज्यादा ही महंगी लगी मुझे। सभी चीज़ो के दाम बहुत ज्यादा थे। हम वापस बस में आ गए। खुलती-बंद होती आखों के बिच अब हम ग़ाज़ियाबाद आ चुके थे। नींद काफी हद तक पूरी हो चुकी थी, फिर भी ऐसे ही लेटे रहे। सुबह करीब 3:30 बजे बस हमे कश्मीरी गेट उतार दी।
मैंने ऑटो वाले से पूछा की मयूर विहार 3 चलोगे तो उसने कहा की 300 लगेंगे। ये तो सरासर लूट थी तो मैंने मना कर दिया। रोहित ने OLA में चेक किया तो किराया 200 के दिखा रहा उसके घर का और मेरे घर का भी। उसने मुझे अपना OLA अप्प रेफेर किया और मैंने अपने फ़ोन में डाउनलोड कर के उसका रेफरल कोड डाल दिया। अब अपने घर का किराया चेक किया तो 175 दिखा। इतना तो वाजिब किराया है वो भी रात का समय। रोहित ने कैब बुक करि और मैंने भी और दोनों घर को चल दिए। धन्यवाद।
कुछ और फोटो...
शहर को पीछे छोड़ अब हम हलके पहाड़ी क्षेत्र में थे। किस्मत से हमारा ऑटो ड्राइवर मिलनसार था और हमे आस पास की जानकारी देने में कोई कमी नहीं कर रहा था। शहस्त्रधारा का मतलब इसके नाम में ही छुपा हुआ है। ये बहुत सरे झरनो से मिल के एक छोटी सी नहर या नदी बनी है। इसके पानी में सल्फर (गंधक) की मात्रा ज्यादा है और ये त्वचा के लिए अच्छा होता है। भले ही शहस्त्रधारा देहरादून में बहुत विख्यात है लेकिन मुझसे पूछो तो मुझे कुछ खास पसंद नहीं आया। ऑटो वाले ने पार्किंग से पहले ही हमें उतार दिया क्यूंकि अंदर जाता तो पार्किंग के पैसे बेमतलब के देने पड़ते जो हम तीनो को सही नहीं लगा। हमने ऑटो वाले से फ़ोन नंबर ले लिया और उसकी ऑटो का नंबर प्लेट की फोटो ले ली। वैसे थोड़ा डर तो था लेकिन उससे ज्यादा, बाद में ऑटो पहचानने की होने वाली दिक्कत से बचना था। कुछ सामान ऑटो में रख दिए जिसमे सिर्फ कपडे थे और एक बैग और पर्स लेके हम चल पड़े अंदर की ओर।
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शहस्त्रधारा और मैं |
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शहस्त्रधारा और रोहित |
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शहस्त्रधारा के पास |
करीब आधे घंटे में हम थे गुच्चू पानी के पास। ऑटो वाले ने फिर कहाँ की मैं बहार ही रहूँगा, आप दोनों आराम से अंदर से हो आओ। अब हमे ऑटो वाले पे भी भरोसा हो गया था। हमने ऑटो वाले भैया से कहा ही आप भी साथ चलो, कभी कभी आते होंगे इस बार हमारे साथ ही अंदर चल लो। उन्होंने विनर्मता पूर्वक मना कर दिया और ये बताया की कुछ खास मौके पे वो यहाँ पे आते है और पूरा दिन बिताते है। हमने अपने बैग, जूते सब ऑटो में ही रखे इसबार और सिर्फ पर्स और मोबाइल ले के अंदर चले। यहाँ टिकट भी लगता है, वैसे कोई खास दाम नहीं है यहाँ के टिकट का। एंट्री गेट से आपको यहाँ कुछ दूर पैदल चलना पड़ता है। हमे गुस्सा आ रहा था की हमने जूते क्यों खोल दिए। करीब 400 मीटर अंदर चलने के बाद कुछ दूकान शुरू हो जाती है। यहाँ दुकानों कर्म संख्या में थी इसका मतलब ये था सरकार की तरफ से दूकान आयोजित की हुई थी। उसके बाद कुछ लॉकर्स और कपडे बदलने के रूम भी थे।
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रॉबर्स केव |
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रॉबर्स केव के शुरुवात में |
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रॉबर्स केव में घुटने भर पानी |
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रॉबर्स केव |
अब करीब 6 बज रहे थे और हमारी ट्रैन रात 11:35 पे थी। हमारे पास सामान भी था तो कही घूमने का बन भी नहीं पा रहा था। तभी हम दोनों के दिमाग में विचार आया की अगर सामान कही रखने का बन गए तो हम आस पास के मार्किट घूम के रात 9-10 तो बजा ही लेंगे और उसके बाद ट्रैन का इंतज़ार करेंगे। सामान रखने के लिए देहरादून स्टेशन का क्लॉक रूम से बेहतर क्या होगा लेकिन मेरे पास ताला नहीं था। क्लॉक रूम में सामान रखने से पहले पहले आपको अपने बैग में ताला लगाना अनिवार्य है वार्ना वो आपका बैग जमा ही नहीं करेंगे। रोहित के पास ताला था, सभी सामान और रोहित को क्लॉक रूम के पास छोड़ के मैं बहार निकल गया ताला ढूंढ़ने। थोड़ी पूछताछ के बाद मुझे ताले चाभी की दूकान मिल गयी। कीमत मुझे ज्यादा लगी लेकिन मज़बूरी में लेना पड़ता है। वापस आ के बैग में ताला लगाया, गंगा जल के सभी डिब्बे को एक बड़ी बैग में डाल के रस्सी से बांध दिया। पर्ची कटवाई और बहार चल पड़े देहरादून मार्किट की ओर।
सब जगह की मार्किट तो एक जैसे ही होती है, वही कुछ दुकाने, कुछ भीड़ और कुछ चाय नास्ते के दूकान। रात में ना सो पाने के कारण और दिन भर के थकान के कारण अब चलने का बिलकुल भी मन नहीं कर रहा था। कुछ देर मार्किट में घूमने के बाद हमे गोल गप्पे और पाव भाजी की ठेली दिखी। हमसे रहा नहीं गया तो सिर्फ टेस्ट करने के बहाने हम एक एक प्लेट चट कर गए। अब तो पेट भी फुल और चला भी नहीं जा रहा तो वापस स्टेशन आने पे ही आराम करने का सोचा। अब जैसे हम स्टेशन पे वापस आये तो मेरी नज़र डिस्प्ले बोर्ड पे पड़ी। ये क्या? नैना देवी एक्सप्रेस ट्रैन कैंसिल कर दी गयी है। मुझे विश्वास नहीं हुआ तो मैंने रोहित को कन्फर्म करने को कहाँ। वो पूछताछ केंद्र से हो आया और उसका जवाब भी वही था। ट्रैन कैंसिल कर दी गई है। कारण का कुछ पता नहीं चला।
अब हमे चिंताओं ने घेर लिया। अब वापस दिल्ली कैसे जायेंगे। अगले दिन ऑफिस तो जाना ही है। क्या करे? कैसे जाये? मैंने अपने भैया को फ़ोन कर के सूचित कर दिया ट्रैन कैंसिल हो गयी है और हमारा ट्रैन वाला टिकट कैंसिल कर दो, TDR फाइल कर दो, जो भी हो कर दो। रोहित का भी वही कहना था की कल तो हर हाल में ऑफिस जाना ही है। हमने नेट पे रात वाली ट्रैन में टिकट देखने की कोशिश करि। वो कहते है ना सभी मुसीबत एक साथ ही आती है, हमारे फ़ोन में नेटवर्क बहुत धीरे धीरे आ रहे थे। खैर, बड़ी मुश्किल से ही सही सभी ट्रैन में वेटिंग लिस्ट की लम्बी संख्या देखने को मिली। अब जब कुछ समझ नहीं आ रहा तो रोहित से उमेश को फ़ोन मिला दिया। इस समय उमेश हमारे सामने एक उम्मीद की किरण थे और उन्होंने बिलकुल सही उपाय भी बताया। उन्होंने कहा की आप दोनों देहरादून ISBT चले जाओ वहाँ से आपको दिल्ली के लिए बस मिल जाएगी।
मैंने रोहित को कह दिया मैं साधारण वाली बस में नहीं जाऊंगा, मैं उतनी देर लोहे जैसे सीट पे सफर नहीं कर सकता। मुझे आराम करना है इसलिए AC या VOLVO वाले से चलेंगे। कभी कभी अमीरी वाली बातें भी कर लेता हूँ। हम तुरतं क्लॉक रूम से अपना सामान लिए और बहार रोड पे आ गए। यहाँ पे एक पुलिस वाले भाई साहब से ISBT जाने के रास्ता पूछा। उन्होंने बता दिया इधर से जो ऑटो वाले आएंगे उनसे पूछ के बैठ जाना, वो ISBT उतार देंगे। थोड़ी देर में एक ऑटो मिल गया। आगे जगह कम थी तो मैंने आगे बैठ गया और रोहित को पीछे बैठने को कह दिया। छोटे से रास्ते में भी, मैंने करीब 3 बार ऑटो वाले को कह दिया की भैया ISBT पे उतार देना। शायद नई जगह पे कुछ एतिहात बरतने की जररूत लगी मुझे, क्यूंकि एक दो बार मैं अपने गंतव्य से आगे बढ़ चूका हूँ ऐसे ही मामलो में और फिर दुबारा वापस आना पड़ जाता है। ऑटो वाला हमे ISBT के बहार सड़क पे उतार दिया, हमने उनसे पूछा अंदर जाने का रास्ता तो उन्होंने कहा की आप अंदर चले जाओ आपको पता चल जायेगा।
अंदर जाने के साथ ही हमे उत्तर प्रदेश परिवहन की साधारण बस सामने मिली और वो "दिल्ली, दिल्ली" चिल्ला रहा था। बस नहीं, बस का कंडक्टर चिल्ला रहा था। हम भी गोली की गति से उसके पास पहुंचे और पूछा 2 सीट मिल जाएगी। उसने कहा की आधी बस खाली है, जिधर सही लगे बैठ जाओ। अंदर जा के 3X2 वाली बस में 2 वाली सीट पे कब्ज़ा कर लिया। उम्मीद के विपरीत सीट काफी गद्देदार थी। हमने किराया पूछा तो कहा अभी बैठ जाओ, जब बस खुलेगी तब टिकट मिलेगा, हमने तुरंत पूछा की बस कितने देर में खुलेगी, उन्होंने कहा की थोड़ी देर में, ज्यादा से ज्यादा 15 मिनट या उससे कम। अब हम अपना सामान सेट कर रहे थे तभी ख्याल आया की बस हमे सुबह कितने बजे उतारेगी। फिर कंडक्टर के पास पहुंचे और आराम से पूछा की भैया दिल्ली कितने बजे तक उतार दोगे। उन्होंने कहा की सुबह 4 बजे तक। हमने भी सोचा सही है, सुबह थोड़ा इंतज़ार कर लेंगे 5 बजे मेट्रो चलने लगती है उससे निकल जायेंगे।
थोड़ी देर में बस लगभग भर चुकी थी और दिल्ली के लिए खुल गई। रोहित विंडो सीट पे बैठ के सोने लगा और मुझे नींद नहीं आ रही थी। थोड़ी देर चलने के बाद मौसन में ठण्ड बढ़ गई और ठंडी ठंडी हवा में कब आँख लगी, याद नहीं। भैया का फ़ोन आया तो नींद खुली, उन्होंने बताया की ट्रैन कैंसिल होने के कारण टिकट अपनेआप कैंसिल हो गया है और पूरा पैसा, पूरा पैसा वापस आ जायेगा। चलो कुछ तो अच्छा लगा की पूरा पैसा वापस आ जायेगा। फिर आँख लगी तो इस बार रूरकी बस स्टैंड में आँख खुली। बहुत सारे यात्री उतरे और कुछ ही चढ़े। बस अब आधे से ज्यादा खाली थी। रोहित 3 वाली सीट पे सोने चला गया और मैं 2 वाली सीट पे सो रहा था अब। दो रात से नींद पूरी नहीं हुई और दिन भर घूमना, शायद शरीर अब और नहीं सह सकता था इसलिए जैसे मौका लगता आँख लग जाती। फिर जब आँख खुली तो देखा की बस उससे भी ज्यादा खाली हो गई थी। अब मैं भी 3 वाली सीट पे जा के सो गया।
बस में अब इतने इतने ही लोग थे जितने 3 वाली और 2 सीट एक साथ थी, मतलब मुश्किल से 15 से 20 लोग होंगे। बस फिर एक ढाबे पे रुकी। ये जगह कुछ ज्यादा ही महंगी लगी मुझे। सभी चीज़ो के दाम बहुत ज्यादा थे। हम वापस बस में आ गए। खुलती-बंद होती आखों के बिच अब हम ग़ाज़ियाबाद आ चुके थे। नींद काफी हद तक पूरी हो चुकी थी, फिर भी ऐसे ही लेटे रहे। सुबह करीब 3:30 बजे बस हमे कश्मीरी गेट उतार दी।
मैंने ऑटो वाले से पूछा की मयूर विहार 3 चलोगे तो उसने कहा की 300 लगेंगे। ये तो सरासर लूट थी तो मैंने मना कर दिया। रोहित ने OLA में चेक किया तो किराया 200 के दिखा रहा उसके घर का और मेरे घर का भी। उसने मुझे अपना OLA अप्प रेफेर किया और मैंने अपने फ़ोन में डाउनलोड कर के उसका रेफरल कोड डाल दिया। अब अपने घर का किराया चेक किया तो 175 दिखा। इतना तो वाजिब किराया है वो भी रात का समय। रोहित ने कैब बुक करि और मैंने भी और दोनों घर को चल दिए। धन्यवाद।
कुछ और फोटो...
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