Tuesday, 13 November 2018

उत्तरकाशी - हरसिल - देहरादून यात्रा 2017 (भाग 1)

दिल्ली से उत्तरकाशी

उत्तरकाशी से पहले 
मैं और मेरे बचपन का मित्र रोहित, दोनों को दिल्ली में रहते हुए बहुत साल हो गए थे। बहुत दिनों से घूमने की इक्छा थी, लेकिन कुछ निजी कारणों से घूमने के ऊपर ध्यान नहीं दे पाया। साथ ही पिछले साल सवान के महीने में मैंने अपने मित्र रोहित को उमेश के साथ (उत्तरकाशी यात्रा) जाने से रोका भी था (बारिश में पहाड़ो पे घूमना नहीं चाहिए, भूस्खलन कभी भी हो सकता है, 3-4 न्यूज़ पेपर की कटिंग भी भेज दी थी) और अंतिम समय पे रोहित को प्लान कैंसिल करना पड़ गया था। खैर अब किसी को यात्रा पे जाने से रोका था तो हर्ज़ाना भी भरना ही था। फिर मेरा और रोहित का हरसिल जाने का प्लान बना। हमने तय किया की बारिश के बाद ट्रैन से देहरादून जायेंगे, वहाँ से उत्तरकाशी के लिए उत्तराखंड परिवहन की बस और उत्तरकाशी से हरसिल के लिए बस या शेयर्ड टैक्सी कर लेंगे। हमने दिल्ली से देहरादून की टिकट भी करवा ली और यात्रा वाले दिन का इंतज़ार भी करने लगा। तैयारी भी पूरी हो गयी थी मतलब क्या ले के जाना हैं, दवाई कौन कौन सी ले जानी चाहिए और बाकि सब। फिर वो हुआ जिसका हमने उम्मीद नहीं किया था। बाबा गुरमीत राम रहीम सिंह को बंदी बनाने का आदेश आता है और पुरे उत्तर भारत में आगजनी और कर्फ्यू ही घटना की न्यूज़ आने लगी। ये घटना हमारे यात्रा वाला दिन से ठीक एक दिन पहले हुआ था। मेरे और रोहित के बिच में काफी देर तक वार्तालाप हुई, और घर वालो के बात मानते हुए हमने अपना टिकट कैंसिल करना पड़ा। वैसे अगर निकल भी जाते तो कुछ हानि नहीं होती लेकिन घर वालो की बात का सम्मान करना हमे आता है (मन मार के ही सही)।

दिल्ली में जली हुई बस की खबर। फोटो साभार:गूगल 
निराश तो हम दोनों बहुत हुए क्यूंकि सालो बाद कही जाने का प्लान बना था और अंतिम समय पे किसी अन्य कारण से कैंसिल करना पड़ गया था। लेकिन हमने भी ठान ली थी, जाना है तो जाना है आज नहीं तो कुछ दिन बाद ही सही। रोहित से वार्तालाप का दौर बनता रहा और 9 सितम्बर को दिल्ली से देहरादून वाली नंदा देवी AC एक्सप्रेस ट्रैन में टिकट करवा लिया (बहुत दिनों बाद निकल रहे थे AC में जाना तो बनता हैं ) और वापसी का भी उसी ट्रैन में ले लिया। इस बार पहले वाली कोई परेशानी नहीं आयी और हम सही समय पे रेलवे स्टेशन पहुँच गए । ट्रैन अपने निर्धारित समय से खुल गयी। मन में बहुत उत्साह था और खुशी भी बहुत थी। आखिर क्यों ना हो, बहुत दिनों बाद एक बार परेशानी झेलने के बाद अपने बचपन के मित्र के साथ किसी पहाड़ी क्षेत्र में जाने का मौका मिला था। रात का समय और AC डिब्बे से बाहर का नज़ारा देखना मुमकिन नहीं था, वैसे भी हमारी सीट बिच वाली और साइड में ऊपर वाली थी। घर वालो को फ़ोन से सूचित करके अपने सीट पे सोने की तैयारी करने लगे।

ट्रैन का देहरादून पहुँचने का समय सुबह 5:40 का है, और हमे उम्मीद थी की हमे 6 बजे कोई बस रेलवे स्टेशन के पास वाले बस स्टैंड से मिल जाएगी। और इसी उम्मीद के साथ हम नींद में सो गए। रात में एक दो बार नींद तो खुली लेकिन फिर सो गए। सुबह जब 5 बजे के करीब नींद खुली तब हमे पता चला की ट्रैन करीब 2 घंटे लेट चल रही है और कोच अटेंडेंट में बताया की ट्रैन थोड़े समय के लिए ही देहरादून स्टेशन पे रुकेगी, फिर वहाँ से हरिद्वार में आके लग जाएगी। खैर हमे इस बात की चिंता नहीं थी की ट्रैन देहरादून के बाद कौन से यार्ड में जा के लगेगी, हमे अब इस बात की थोड़ी बहुत चिंता होने लगी की इतनी लेट देहरादून से कोई बस मिलेगी या नहीं। खैर पाजिटिविटी बहुत थी तो हमने सोचा 'मिल ही जाएगी' और देहरादून स्टेशन आने का इंतज़ार करने लगे।

ट्रैन करीब डेढ़ घंटे लेट 7:05 में हमे देहरादून उतार दी। हमने अपने बैग लिए और चल पड़े बस स्टैंड पे (हिल वाली, जहाँ से पहाड़ो के लिए बस मिलती है)। वहाँ जा के देखा तो कुछ बस लगी हुई थी लेकिन किसी पे उत्तरकाशी का बोर्ड नहीं था। दिमाग में सौ तरह की बातें घूमने लगी की क्या करे। फिर किसी इंसान से पूछा तो उसने कहा की एक बार अंदर पता कर लो। पूछताछ के मामले में मैं हमेशा रोहित को आगे कर देता हूँ, इस बार भी रोहित को पूछताछ करने काउंटर पे भेजा, शायद कुछ पता चले।  वो तुरंत वापस आया और कहाँ की अब आज उत्तरकाशी की कोई बस नहीं है। अब, हम दोनों दिमाग ख़राब होना चालू हुआ। आज सुबह ही हुई और बस नहीं मिली तो पूरा दिन बर्बाद हो जायेगा। क्या करे क्या ना करे की स्थिति...

समझ नहीं आ रहा था की क्या करें। सबसे बड़ी टेंशन तो दिन बर्बाद होने की थी। रोहित ने अपने मित्र उमेश को फ़ोन लगाया ताकि उससे कुछ परामर्श ले सके। उसने कुछ महीने पहले ही उत्तरकाशी-गंगोत्री की यात्रा की थी। लेकिन उमेश रात्रि पहर वाली ड्यूटी के कारण सो रहा था और हमारा फ़ोन करना व्यर्त हुआ। फिर कही से दिमाग में आईडिया आया की प्राइवेट बस भी चलती होगी, उसका पता करते है। मैंने रोहित को फिर से बस के काउंटर पे जाके पता करने के लिए आगे कर दिया, हालाँकि ये उत्तराखंड परिवहन बस का काउंटर था फिर भी। इस बार खबर अच्छी थी, उन्होंने ने बताया की आप परेड ग्राउंड चले जाओ, वहाँ से आपको उत्तरकाशी की बस मिल जाएगी। बस काउंटर वाले भैया ने ये भी बता दिया की बहार निकल के रोड क्रॉस कर लेना और आपको ऑटो मिल जायेंगे।

अब जान में जान आयी। एक उम्मीद की किरण जागी। हम दोनों ने बिना कोई पल गवाए रोड क्रॉस कर के ऑटो देखने लगे। शेयर्ड ऑटो भी जल्द मिल गया जिसने हमे परेड ग्राउंड पे उतार दिया। 4-5 प्राइवेट बस खड़ी थी, तुरंत ऑटो वालो को पैसे दे के उत्तरकाशी की बस ढूंढ़ने लगे। तभी एक बन्दे ने पूछा "उत्तरकाशी"? हमने कहा "हाँ"। सामने जो बस लगी हुई है उसमे बैठ जाओ। हमने पूछा 2 सीट मिल जाएगी तो उसने बोला खुद ही देख लो, वैसे बस खाली है। उसके खाली होने का मतलब ये था की तुम्हारे लिए सीट है अभी। हम अपने सामान के साथ बस में चढ़ गए और फिर पता चला की पीछे वाली सीट पे बैठना होगा वो भी बिच में। एक बार तो विंडो वाली सीट होती तो काम चला भी लेते, लेकिन सबसे पीछे वाली वो भी बिच में- "ना हमे नहीं जाना इससे" कहकर उतर गए। फिर हम दोनों में बातचित हुई, 6-7 घंटे का सफर है, बिच में कही और एडजस्ट कर लेंगे का तय करते हुए दुबारा बस में चढ़े। लेकिन इस बार तो वो सीट भी फुल हो गयी थी। हमने सोचा अब, जो होगा सो होगा, खड़े खड़े ही चले जायेंगे। लेकिन फिर कुछ भले लोगो ने बताया की और भी बस, शेयर्ड टैक्सी मिल जाएगी ऐसे जाने की जरुरत नहीं। खड़े-खड़े थक जाओगे वो भी पहाड़ी रास्ते में। हम बस से फिर से उतर गए और वो बस 5 मिनट बाद फुल हो के चल पड़ी।

ठीक उसके बाद ही उत्तरकाशी की दूसरी बस वही साइड में ला के लगा दी गयी। हमारी खुशी का ठिकाना नहीं था अब। उत्तरकाशी वाली बस वो भी पूरी खाली, अपनी मन पसंद की सीट चुन सकते थे। लेकिन वो कहते है ना खुशिया ज्यादा देर नहीं टिकती वैसे ही हमारे साथ होने वाला था। ये बस देहरादून से ऋषिकेश-चम्बा होते हुए उत्तरकाशी जाएगी। इतने देर में उमेश का फ़ोन भी आ गया था और उसने बताया की सुवाखोली होते हुए वाली बस कम समय लेती है। (देहरादून से उत्तरकाशी जाने के 2 रूट हैं- एक सुवाखोली होते हुए जिसमे करीब 2 घंटे कम समय लगता है और दूसरा चम्बा होते हुए)। फिर से सोच विचार का दौड़ चला, थोड़ा जोर घटा गुना भाग भी हुआ की अब करे तो क्या करे।

ये बस करीब 2 घंटे का ज्यादा समय लेगी और सुवाखोली होते हुए अगली बस 1 घंटे बाद खुलेगी। करीब 5-10 मिनट सोच विचार विमर्श करने के बाद ये नतीजा पे आये की हम इसी बस से जायेंगे। 1 घंटे ही ज्यादा लगेंगे ना, ठीक है (2 घंटे कम समय लेती सुवाखोली वाली बस परन्तु 1 घंटे बाद खुलती), वैसे भी हमे कौन सा पहाड़ तोड़ने जाना था। आते वक़्त सुवाखोली तरफ से आने का निर्णय लेके, हमने 2 सीट बुक कर ली, बस में चढ़ने के साथ सामने वाली 2 सीट। कंडक्टर वाले भैया से पूछा की कितने बजे तक उत्तरकाशी उतार दोगे तो उसका जवाब था दोपहर 3 बजे तक। बस खुलने में 10-15 मिनट थे अभी, सोचा बस में कुछ खाने पिने के लिए ले लेते है, सुबह का समय था तो सिर्फ गुमटी ही दिख रही थी। थोड़ी देर ढूंढ़ने के बाद मुझे चिप्स और बिस्कुट के पैकेट मिल गए और फिर बस में आ के बस खुलने का इंतज़ार होने लगा। इतने में मौसम ने करवट बदली और बारिश की कुछ बूँदें धरती को नम करते हुए ना जाने कहा खो गयी। थोड़ी देर में बस करीब आधे से ज्यादा भर गयी थी और हमारी बस की यात्रा शुरू हुई। देहरादून से ऋषिकेश की सड़क बहुत अच्छी है, मौसम का खुशनुमा अंदाज़, हरे भरे जंगल और अपने गति से चलती हुई बस। बहुत ही सुखद एहसास था वो और ऐसे पल और भी अच्छे लगते है जब आपके साथ आपका मित्र होता है। 

पहाड़ो का पहला नज़ारा 
बस अब पूरी भरी नहीं थी तो इसका हर्ज़ाना कौन भरता। हम बस यात्रिओ को ही भरना पड़ा, अपना समय गवा के। ऋषिकेश में करीब 20 मिनट तक रोक के उसने सवारी भरी। ऋषिकेश को पहाड़ी यात्रा या क्षेत्र का द्वार भी माना जाता है। यहाँ से चारो धाम (यमुनोत्री धाम, गंगोत्री धाम, श्री केदारनाथ धाम और श्री बद्रीनाथ धाम) के लिए सड़क निकलती है, वैसे यमुनोत्री के लिए देहरादून से बड़कोट वाला रास्ता ज्यादा सही है। ऋषिकेश तो काफी अच्छी जगह है और मन लगने वाली भी, लेकिन उस समय हमे बिलकुल भी मन नहीं लग रहा था। सवारी भर के हमारी बस फिर आगे बढ़ चली। कभी हम दोनों के बिच बातचीत होती या फिर दोनों बहार के नज़ारे देखने में व्यस्त हो जाते। समय कैसे बिता पता नहीं। करीब 11 बजे के पास चम्बा में बस रोकी और बोला गया की कुछ खाना पीना है तो खा लो, यहाँ बस करीब 20 मिनट रुकेगी। इसके बाद कोई ब्रेक नहीं होगा, बस सीधे उत्तरकाशी ही रुकेगी।

हमने ना तो सुबह से ब्रश किया था और ना दिन चर्या वाले काम। समय और पेट की नजाकत को देखते हुए हम दोनों में थोड़ा बहुत ही खाने का निश्चय किया। रोहित की नज़र सबसे पहले चौमिन पे ही जाती है और वहाँ भी ऐसा हुआ। चल, चौमिन खाते है, मैंने कहा- "मुझे नहीं खाना, तू खा ले"। उसका जवाब था- "तू नहीं खायेगा तो मैं भी नहीं खाऊंगा"। मैंने कहा- "ये क्या बात हुई"। तो फिर सबसे पहले हमने समोसे चटकाए, फिर एक प्लेट चौमिन। दोस्त की बात रखनी पड़ती है। और वापस बस में आ के बैठ गए। चम्बा आबादी वाला क्षेत्र है, तो बहुत सारे सवारी वही उतर चुके थे। बस वाले ने फिर से आवाज़ लगा-लगा के बस की खाली सीटों को फुल किया और फिर बस चल पड़ी।

चम्बा से आगे आने के बाद, हमे टिहरी डैम रिज़र्वर दिखने लगा जो की भागीरथी नदी पे बना हुआ है। बहुत ही सुन्दर नज़ारा था वो भी, एक तरफ ऊँचे पहाड़ साथ पहाड़ो के टेढ़े मेढ़े रास्ते और दूसरी तरफ शांत पानी। टिहरी डैम भारत का सबसे ऊँचा तथा विशालकाय डैम है। इस डैम का मुख्य मकसद बिजली पैदा और सिचाई करना है। टिहरी डैम में कई सारे खेल प्रतियोगिता भी होती है और ये भी एक अच्छी जगह है अगर आपको पानी वाले खेल पसंद है तो। लोग पानी वाले खेल दूर दूर तक जाते है लेकिन पहाड़ो में इसका आनंद कुछ और ही है। एक-दो दिन काफी है इस जगह के लिए लेकिन हमारी मंज़िल अभी कुछ और थी। हमने अपने मोबाइल से कुछ फोटो भी ली। पहाड़ो में आपने एक बात पे जरूर ध्यान दिया होगा, अगर कोई अच्छा सीन आया और आप उसे अपने कैमरे में कैद नहीं कर पाए तो आपको दूसरा मौका भी मिलेगा। रास्ते भर, मोबाइल पे गूगल देवता की मदद से हमे आस पास का जगहों का नाम पता चलता रहा लेकिन मोबाइल की बैटरी बचने के चक्कर में वो भी बंद करना पड़ा। बस में कभी नींद आती तो थोड़ा सो भी लेते। आखिर सफर जो लम्बा था, आराम भी करना होता है।

डैम का नज़ारा 
अब हमारी बस चिन्यलिसौर होते हुए धरासू पहुंचने वाली थी। यहाँ हमे पता चला की यमुनोत्री का रास्ता यहाँ से अलग हो जाता है। यहाँ से करीब १ घंटे और लगने वाले थे उत्तरकाशी पहुंचने में। अब धीरे-धीरे सब्र का बाँध टूट भी रहा था कही। बस अनदेखी पहाड़ो की खूबसूरती ने हमे एक साथ बांधे रखा था। जैसे जैसे शहर नजदीक आने लगा वैसे वैसे लोगो की रास्ते में उतरने की संख्या भी ज्यादा होने लगी। खुन्नस भी बहुत आ रही थी, क्यूंकि हर उतरने वाले साथ हमारी उत्तरकाशी पहुंचने का समय बढ़ने लगा था। फिर हमारी बस एक सुरंग में घुसी, तभी रोहित ने कहा की उमेश ने अपने ब्लॉग में ऐसा ही लिखा था "सुरंग पार हुई और हम एक अलग ही दुनिया में प्रवेश कर चुके थे" और सच में उस सुरंग से निकलने के बाद हम अलग दुनिया में ही थे। ये था उत्तरकाशी, आज की हमारी मंज़िल।

समय देखा तो 3:15 हो रहे थे। कंडक्टर वाले भैया ने कहा की माफ़ करना थोड़ी देर हो गयी। हमने कहा कोई बात नहीं, 15 मिनट ही तो ज्यादा हुए है और उन्हें राम राम कहते हुए हम निचे उतर आये। उमेश ने हमे पहले ही एक सस्ता होटल का नाम बता दिया था। 5 मिनट के अंदर हम उस होटल में थे। हमने पूछा की 1 कमरा मिल जायेगा, होटल के मालिक ने कहा की कितने दिन रुकना है, हमने कहा 2 दिन वो भी दूसरे दिन सुबह ही निकल जायेंगे । उन्होंने कहा की पहले कमरा देख लो, उसके बाद बात करते है। कमरा ठीक ठाक ही था, हमे मतलब ही कितना था, दिन में नित्य क्रियाओ से निवृत होना और रात में सोना। उस हिसाब से सही था कमरा। कमरा देखने के बाद उन्होंने कहा की 500 लगेंगे। हमने पूछा 2 दिन का, उन्होंने कहा "हाँ"। मन में अजीब से खुशी हुई इतना सस्ता कमरा। रोहित ने इतने में ही कहा की कुछ सही लगा लो (मेरा दिमाग ठनका, विचार आया की अब क्या फ्री में रहना है)। फिर हाँ ना करते हुए 400 में तय हुआ (हिसाब करो तो 1 व्यक्ति का 100 वो भी एक दिन का)। हमने रूम की चाभी ली, पानी की बोतल भरी और अपने रूम में पहुंच गए।  हमने तय किया अभी तुरंत फ्रेश हो, तैयार हो के आस पास घूम आते है और कल सुबह हरसिल जाने के जानकारी का भी पता कर लेंगे। करीब 40 मिनट में हम दोनों तैयार थे उत्तरकाशी भर्मण करने के लिए।...


बाकि अगले भाग में...

तब तक कुछ तस्वीरों का आनंद उठायें ...


रास्ते में कही

खूबसूरत नज़ारा 

फिर से 

दूर से कुछ ऐसा दिखा 

डैम का नज़ारा 

फिर से डैम 

ये आदमी बैठ के क्या कर रहा है, मुझे नहीं पता 

No comments:

Post a Comment