अब तक आपने पढ़ा की कैसे मेरा और रोहित का हरसिल यात्रा का प्लान बना, कैसे हम दिल्ली से उत्तरकाशी आये, कैसे उत्तरकाशी भ्रमण फिर अगले दिन हरसिल भ्रमण किया। आज वापसी का दिन था, उत्तरकाशी से देहरादून का...
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रात भर सही से नींद तो आयी नहीं, सुबह जल्दी ही होटल के कमरे से बहार आ के फिर से उन्ही शांत वातावरण में खो गया क्यूंकि ये मौका हमे फिर शायद बहुत दिन बाद ही मिलता। सुबह वाले कार्य निपटा के हम फिर से घाट की और बढ़ चले, डिब्बे में गंगा जल भरा और थोड़ा समय वही बिताया। वापस, कमरे में आ के सारी पैकिंग करी। रोहित के पास छोटे बड़े गंगा जल के 4 डिब्बे थे और मेरे पास 2 डिब्बे। गंगा जल वाले डिब्बे से थोड़ी सी परेशानी हो रही थी क्यूंकि दो दो ढक्कन होने के बाद भी दबाब के कारण गंगा जल डिब्बे से बहार आने लगता था। एक छोटा डिब्बा में जिसमे ये परेशानी नहीं थी वो मैं अपने बैग में डाल दिया। बाकि डिब्बा रोहित ने अलग थैली में डाल दिया जिसमे दवाब पड़ने से जल बहार आने लगता था।
बस स्टैंड पास में ही था तो हमने एक दिन पहले ही पता कर लिया था सुबह 8 बजे देहरादून के बस खुलती है सुवाखोली के रास्ते होते हुए। हम आये थे चम्बा होते हुए तो हमे इसी रास्ते से वापस जाना था। पिछले दिन सुबह में ही हमने टैक्सी स्टैंड पे पता किया था की वहाँ से भी सुबह देहरादून के लिए शेयर्ड टैक्सी मिल जाती है और किराया भी बराबर ही है। इस बात पे भी हम दोनों में सलाह मशवरा चला था की किस्से जाना सही रहेगा। और अंतिम में हमने शेयर्ड टैक्सी से जाना बेहतर लगा, कारण था समय कम लगना।
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सुबह में ली हुई |
सुबह 7 बजे थे और हम अपने सामान से सिर्फ एक एक बैग ले के टैक्सी स्टैंड की और बढ़ चले। आज हमारी किस्मत अच्छी थी। बिच में विंडो साइड से 2 सीट मिल गयी। लेकिन अब फिर से कल वाला नाटक शुरू, बोले तो सवारियों का इंतज़ार। आगे और बिच वाली सीट तो बुक थी पड़ अभी भी पीछे वाली सीट खली थी। चुकी हमारा होटल रास्ते में ही पड़ता तो हम अपने बाकि का सामान गाड़ी खुलने के बाद होटल से उठाने वाले थे। इसमें ज्यादा समय नहीं लगता और हमारे ड्राइवर भाई साहब को भी कोई दिक्कत नहीं थी। बातों बातों में पता चला की हमारे ड्राइवर साहब बहुत दिन से गाड़ी चल रहे है, कुछ साल उन्होंने दिल्ली में भी बिताया था लेकिन मन नहीं लगने के कारण वापस पहाड़ो की तरफ आके गाड़ी चलाने लगे। पहाड़ी लोग भले ही दिल्ली जैसे बड़े शहर में आके अपना पेट पाल ले लेकिन उनको वो अपनापन नहीं मिल पता है जो उनको घर के पास मिलता हैं। शायद यही कारण है की बहुत से पहाड़ी लोग वापस अपने गाँव वापस चले जाते है, खैर मन तो हमारा भी नहीं दिल्ली जैसे शहर में रहने का लेकिन पेट पालने के लिए घर से दूर रहना ही पड़ता है।
सवारियों का इंतज़ार करते करते अब 7 से 7:30, 7:30 से 8 भी बज गए फिर उससे भी ज्यादा। थोड़ी देर तो हम एक दूसरे पे भी गुस्सा करने लगे की बस से निकल जाते तो अच्छा रहता। लेकिन अब बस भी जा चुकी थी और हम सवारियों का इंतज़ार करने के सिवाय और कुछ कर भी नहीं सकते थे। रोहित ने वापस होटल आने की ज़िद करी और कहा की जैसे सवारी हो जाये तो एक कॉल कर देना, मैं सामान ले के बहार आ जाऊंगा। खैर, जैसे तैसे 12 सवारी वाली गाड़ी में 9 लोग हो गए, लेकिन हमारे बगल वाली दोनों सीट खाली थी। हमने पूछा तो ड्राइवर भाई साहब में बताया की 3 लेडीज सवारी आगे मिलेंगे जिन्होंने पहले से बुक करवा रखा था।
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श्री कण्डार देवता मंदिर - रोहित के द्वारा ली हुई |
अब हमारे आग्रह पे ड्राइवर साहब चलने को राज़ी हो गए और हमारी गाड़ी खुल गयी देहरादून के लिए। होटल के सामने ही सड़क पे रोहित खरा था और हम सब का सामान ऊपर छत पे सेट हो चूका था। ड्राइवर साहब को कुछ सवारी की कमी खल रही थी तो वो धीरे धीरे गाड़ी आगे बढ़ाते हुए आवाज़ लगते हुए चल पड़े। अब उनकी खुशनसीबी या बदकिस्मती, 2 सवारी और मिल गए, अब कुल सवारी 11 हो गए थे। 3 लेडीज सवारी उत्तरकाशी वाले टनल से पहले वाली जगह में मिलने वाली थी। उनमे से 2 तो वही थी लेकिन तीसरे का पता नहीं। फिर से इंतज़ार का दौर चालू हुआ, रोहित को इस बात से बहुत गुस्सा आ रहा था। होता भी क्यों नहीं, सुबह 7 बजे से इंतज़ार करते करते अब 9 बजने चले थे और हम उत्तरकाशी में ही थे । अब बाकि सवारियों का सब्र टूट रहा था और हम सब का गुस्सा हमारे ड्राइवर भाई साहब को सुनना पड़ रहा था। और वो भी हमारी हाँ में हाँ मिला के हम सब के फुसला रहे थे। खैर, वो मोहतरमा भी आ ही गयी, 12 सवारी वाली गाड़ी में 14 सवारी भरने के बाद करीब 9 बजे के बाद हमारी वापसी की यात्रा शुरू हुई।
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उत्तरकाशी का टनल |
जैसे जैसे गाड़ी आगे बढ़ रही थी, दिल में उदासी पन छा रहा था। इतने सुन्दर शहर को छोड़ के जाने का मन तो नहीं कर रहा था, लेकिन नौकरी जो न करवाए। हमारे ड्राइवर साहब पहाड़ी थे और कुछ पहाड़ी गाने अपने गाड़ी में चला दिए। वैसे समझ तो बिलकुल भी नहीं आ रहा था पड़ सुनने में मज़ा बहुत आ रहा था। रोहित मुझसे ज्यादा मज़े ले रहा था उन गानो को। बातों बातो में पता चला की वो तीन महिला सवारी कोई फॉर्म भरने देहरादून जा रही थी और उनका आना जाना लगा रहता है। हमे डर था कही उलटी का बहाना करते हुए साइड में बैठने की ज़िद ना करने लगे। हमारा ये भ्रम तो दूर हुआ। रास्ते में ड्राइवर भाई साहब ने हमे एक नोटपैड हमे थमा दी और हमसे नाम, मोबाइल नंबर और एड्रेस लिखने को कहा, ये उसके रिकॉर्ड के लिए था। अब हमारी गाड़ी मतली, रनरी होते आगे चल पड़ी। धरासू के पास हमे वो बस दिखी जो 8 बजे खुली थी।
अब, हम दोनों को अपने फैसले पे अब फक्र था। बस को पीछे छोड़ते हुए अब हमारी गाड़ी नेशनल हाईवे 34 से थोड़ी अलग मुड़ गयी। ये रास्ता सुवाखोली वाला था। ये रास्ता छोटा और खूबसूरत हैं लेकिन बेहद खरतरनक भी है। इस रास्ते पे हम अक्सर पहाड़ो की चोटियों के पास नज़र आते और दूसरी तरफ गहरी खाई। मैं सबसे साइड में बैठा हुआ था मतलब विंडो के पास, बाहर देखो तो सड़क कम और खाई ज्यादा दिख रही थी। मुझे उचाईयो से थोड़ा डर लगता है, हालत भी ख़राब हो रही थी। रोहित की हालत का पता नहीं लेकिन उसके सामने सिर्फ अपने डर को छुपाने की कोशिश कर रहा था ताकि उसे डर ना लगे।
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खूबसूरत रास्ते |
काफी देर ऊँची चढ़ाव की यात्रा के बाद ड्राइवर साहब ने एक जगह गाड़ी रोकी। ड्राइवर साहब ने मुझे बताया अब यहाँ से ऊँची चढ़ाव खत्म हो जाता है और यहाँ के बाद आपको उतना डर भी नहीं लगेगा। ये जगह शायद नागराजधर थी। वहाँ कुछ गुमटी थी चिप्स नमकीन के और कुछ साग सब्जी के दूकान। हमने कुछ चिप्स लिए, ड्राइवर साहब और बाकि सह यात्रिओ ने कुछ साग, कुछ सब्जी और कुछ आलू। वैसे पहाड़ी आलू लेने का मन तो हमे भी था लेकिन उसे ढो के दिल्ली लाना होता, इतनी दूर वो भी सिर्फ आलू ढोना हमे सही नहीं लगा। पहले ही दो बैग उसके बाद गंगा जल के डिब्बे भी थे। बाकि सवारी तो लोकल ही थे।
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हरी हरी पहाड़ी सब्जिया |
उसके बाद हमारी गाड़ी एक ढाबे पे रुकी दोपहर के खाने के लिए। वहाँ उत्तराखंड की हरियाली का मज़ा लेते हुए हमने भोजन किया। अब जगह का नाम पता नहीं पड़ खाना अच्छा था। कभी सोते कभी जागते हम आगे बढ़ चले। सुवाखोली अब ज्यादा दूर नहीं था। सुवाखोली वो जगह है जहाँ से धनोल्टी का रास्ता अलग हो जाता है। बहुत सारे लोगो के पसंदीदा पर्यटक स्थल मसूरी के बाद धनोल्टी ही आता है। धनोल्टी देहरादून से करीब 2 घंटे की दुरी पे है और मसूरी देहरादून से करीब ढेड़ घंटे की दुरी पे।
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होटल के बगल से नज़ारा |
सुवाखोली के पास हमे हल्का सा जाम मिला लेकिन ज्यादा समय नहीं लगा। अब हम थे सुवाखोली से मसूरी वाले रास्ते पे। शायद, ऊपर वाला आज हमसे खुश थे। मौसम अभी तक तो साफ़ था लेकिन अब सब कुछ बदलने वाला था। धीरे धीरे बदलो का झुण्ड हमारे तरफ बढ़ रहा था। रास्तो पे अब बादलो का राज था, मुश्किल से 100 फ़ीट की दुरी भी नहीं दिख रही थी। मुझे ऐसा लग रहा था कही बारिश ना हो जाये। हमारे बैग ऊपर थे बिना किसी चीज़ से ढके हुए। मन में आया एक बार ड्राइवर भाई साहब से कह दूँ की ऊपर हमारा सामान भी है, बारिश हुई तो सब भीग जायेगा। लेकिन, कहना उचित नहीं समझा। हमारी गाड़ी बादलो को चीरते हुए आगे बढ़ रही थी। बादल बहुत पास थे और उनके पास होने का गज़ब सा एहसास हो रहा था। हम बादलो को महसूस कर सकते थे। रोमांच हमारे पुरे अंग में भर गया था। ऐसा लग ही नहीं रहा था की हम सितम्बर के महीने में है। ये तो पहाड़ो में बारिश वाले मौसम की तरह था और आप पहाड़ो में सबसे ऊपर बादलो को छू रहे हो। रोहित ने साथ ही साथ अपने मोबाइल से वीडियो रिकॉर्डिंग बनानी शुरू कर दी थी। बादलो का ये खुशनुमा अंदाज़ हमारे साथ करीब 10 मिनट तक रहा। फिर उसके बाद बादलो का कोई नमो निशा नहीं। अब हमारे अंदर एक सन्तुस्टि वाली फीलिंग भी थी और हो भी क्यों नहीं, हमने अभी वो पल जिया था जिसे लोग बारिश में मौसम में ऊंची पहाड़ियों में जीते है।
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मसूरी 10 किलोमीटर |
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अगले 5 मिनट में |
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अगले कुछ पलो में |
आगे बढ़ते हुए अब मसूरी कुछ दूर ही रह गई थी। मसूरी से एक बात और याद आयी। टैक्सी स्टैंड पे हमने मसूरी जाने का भी पता किया था। उन्होंने बताया था जो भी गाड़ी उत्तरकाशी से देहरादून जाएगी वो आपको मसूरी के बाहर छोड़ेगी। वहाँ से आपको अंदर 2-3 किलोमीटर जाना होगा। किस्मत अच्छी हुई थी शायद कोई गाड़ी भी मिल जाये अंदर जाने के लिए। चुकी हमारी ट्रैन रात में 11 बजे के बाद थी तो मेरे मन में मसूरी में शाम बिताने का भी ख्याल था। रोहित से बहुत बात भी हुई थी इस बात को लेके। लेकिन, हम इस फैसले पे निर्णय नहीं ले पाए। कारण ये था की अगर कोई गाड़ी नहीं मिली तो पहाड़ो में पैदल चलना और वो भी सामानो के साथ। वैसी हालत में हमारे लिए ये बहुत मुश्किल काम था। हमे मसूरी से देहरादून की बस या और कोई साधन की भी कोई जानकारी नहीं थी। गूगल मैप से बस इतना ही पता चला सका था की डेढ़ घंटे का सफर है मसूरी से देहरादून का। मसूरी के पास एक आदमी उतर गया और ड्राइवर की किस्मत अच्छी की वहीं पे दूसरी सवारी मिल गयी देहरादून तक की। मसूरी से देहरादून की सड़क काफी अच्छी है और 2 लेन की भी है।
आज का हमारा कार्यक्रम था कुछ इस प्रकार का था। दोपहर तक देहरादून, दोपहर से शाम और रात तक देहरादून ही घूमेंगे और रात वाली ट्रैन से दिल्ली वापसी करेंगे। सुबह से ड्राइवर की किस्मत तो अच्छी थी लेकिन देहरादून पहुंचने से पहले उसकी किस्मत भी बदल गयी । एक पुलिस वाले उसका चालान काटा, 12 के जगह 14 सवारियों को बैठाने के लिए। उन्होंने जितने कमाए थे उससे थोड़े कम ही देने पड़े तो वो भी खुश थे। हमने ड्राइवर से कह दिया था की हमे देहरादून घूमना है और शहस्त्रधारा जाने के लिए जहाँ से हमे गाड़ी मिल जाये हमे वहीँ पे उतार देना। करीब 2:30 बजे के बाद हम देहरादून पहुंच चुके थे और ड्राइवर साहब से हमे एक चौक पे उतार दिया और बता दिया की आपको वहाँ से गाड़ी मिल जाएगी। जब सामान उतर के चेक किया तो गंगा जल वाली थैली जिसमे सभी डिब्बे थे, वो गीली मिली। डिब्बा देखा तो उसमे करीब 10 प्रतिशत जल कम थी। थोड़ी खुशी भी हुई और थोड़ी दुःख भी। ख़ुशी इस बात की डिब्बा पूरा खाली नहीं हुआ था और दुःख इस बात का हमारा लाया हुआ जल अब कम था। ड्राइवर भाई साहब का हिसाब किताब किया और उन्हें राम राम कह के हम चल पड़े बस की ओर।
यात्रा जारी है...देहरादून की...
तब तक कुछ और फोटो का आनंद लेते हैं...
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