हरसिल यात्रा
अब तक आपने पढ़ा की कैसे मेरा और रोहित का उत्तरकाशी-हरसिल यात्रा का प्लान बना, कैसे हम दिल्ली से उत्तरकाशी आये और कैसे कल शाम हमने उत्तरकाशी भ्रमण किया।
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आज हमारी यात्रा का दूसरा दिन था और हमारे पास सिर्फ आज का दिन था हरसिल घूमने के लिए। हरसिल उत्तरकाशी से करीब 75 किलोमीटर दूर है मतलब गाड़ी से 3 घंटे से कम का समय लगना चाहिए। वैसे, हमने सोचा था सुबह जल्दी निकलने से 10 बजे तक हरसिल पहुँच जायेंगे। 4-5 घंटे घूम के दोपहर 3-4 बजे हरसिल से वापसी कर लेंगे और शाम 6-7 बजे तक उत्तरकाशी। खैर,अगर योजना इतनी ज्यादा बनती है तो कुछ ना कुछ गड़बड़ जरूर होती है। हमारे साथ भी ऐसा ही होने वाला था।
उत्तरकाशी में भागीरथी नदी का बहाव तेज़ है, घाट बने हुए है साथ ही एक जगह लोहे की कड़ी भी बंधी हुई है। इतनी सुबह गंगा मैया में जाकर पानी में डुबकी लगाना उचित नहीं समझा और होटल से ही नहा के घाट पे पहुँचे। घाट पे १-२ लोग ही थे, हमने फिर से गंगा मैया को प्रणाम कर जल के छींटे अपने ऊपर डाला। उस शांति भरे माहौल में हमने कुछ समय वही बिताया। गंगा मैया की गोद से उत्तरकाशी घाटी को देखते रहना अपने आप में सुकून वाला पल था। समय की नज़ाकत को समझते हुए होटल जा के कपडे बदल के अपने आगे की सफर पे निकलना सही समझा।
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सुबह फिर से घाट पे |
करीब 7 बजे से पहले हम टैक्सी स्टैंड पे थे। वहाँ पे 12 सीट वाली चार पहिया SUV वाहनों का जमावड़ा था। हरसिल के लिए गाड़ी मिल गयी लेकिन सामने वाली सीट पहले से ही बुक थी। हमने बिच में बैठने का तय करके ड्राइवर से मोल भाव कर लिया, वैसे मोल भाव करना बेकार था क्यूंकि एक ही रेट था वहाँ पे। टैक्सी स्टैंड से गंगोत्री और हरसिल दोनों जगह की गाड़िया थी। मन में ख्याल आया की पहले गंगोत्री चलते है उधर से आने में हरसिल उतर जायेंगे लेकिन 4 घंटे जाना (100 किलोमीटर की दुरी के हिसाब से), 4 घंटे आना और कम से कम 1 घंटे गंगोत्री, शाम के 5 बजने का संकेत था, फिर हरसिल नहीं घूम पाते। दुविधा इस लिए भी थी की गंगोत्री एक धाम (उत्तराखंड के 4 धाम में से एक) में गिना जाता है, इसका महत्व बहुत ज्यादा हैं और हरसिल का ख्वाब पिछले 3-4 महीनो से हमारे आखो में था। उस समय हमे हरसिल या गंगोत्री में से एक चुनना था, लेकिन लोभ के कारण हमने दोनों चुना और हमने तय किया पहले हरसिल में थोड़ा बहुत घूम लेंगे और फिर गंगोत्री चले जायेंगे। हमे वहाँ मौजूद बाकि ड्राइवर लोग से पता चला की हरसिल से गंगोत्री की गाड़ी मिल जाएगी और कोई दिक्कत नहीं होगी। तो हमारा यही प्लान तय हुआ। शायद, यही हमने भूल कर दी।
सुबह बस चाय की दूकान खुली हुई थी और नास्ता करने का कोई चारा नहीं था। हमने बिस्कुट के पैकेट लेके अपनी पेट की भुख को थोड़ा शांत किया। धीरे धीरे कुछ और सावरिया आ गयी और हमे बिच वाली सीट का भी त्याग करना पड़ा, क्यूंकि जब तक सवारी पूरी नहीं होती तो ड्राइवर ले के चलता नहीं। मजबूरी में ही सही हमे पीछे वाली सीट पे बैठना पड़ा। धीरे धीरे समय बढ़ता जा रहा था और हमारे सब्र के बांध को तोड़ने की कोशिश कर रहा था। 7 बजे से 7:30 हो गए और फिर उससे भी ज्यादा। बाकि सवारी तो हो गयी लेकिन आगे वाली सीट के सवारी जिन्होंने कल शाम में ही बुक कर लिया था उनका कोई नमो निशान नहीं था। किसी तरह से ड्राइवर को उनका नंबर मिला और फिर ड्राइवर को बताया की आप उनके घर के पास से ही उन्हें ले लेना।
अब गाड़ी चली तो अच्छा लगा लेकिन फिर उनके घर पे पास इंतज़ार करना पड़ा। करीब 8 बजे से थोड़ी देर पहले, सभी लोग आ गए और हमारी गाड़ी हरसिल घाटी के लिए चल पड़ी। भुख हमे लगी हुई थी तो हमने ड्राइवर वाले भैया से कह दिया की कहीं नास्ते के लिए रोक लेना। छोटी गाड़ी का एक फ़ायदा तो होता है, ये तुरंत अपनी गति में आ जाती है, कुछ दूर तक जहाँ समतल और सीधा रास्ता था, हमारे ड्राइवर साहब ने 80 की गति तक दौड़ा दी। थोड़ा आश्चर्य हुआ पहाड़ो में इतनी गति देख के। सुबह का मौसम, गाड़ी की स्पीड और पहाड़ो में सितम्बर का महीना, ठण्ड लगना तो लाजमी था। गाड़ी के पीछे वाले शीशे से ठंडी ठंडी हवा मुझे तो बहुत अच्छी लग रही थी, लेकिन शायद सहयात्री को पसंद नहीं आयी। मज़बूरी में शीशे बंद करने पड़े।
मैं और रोहित दोनों रास्ते और पहाड़ो की खूबसूरती में खो गए थे और हमे आपस में भी बातचीत करने का ख्याल नहीं आ रहा था। रास्ते का आईडिया मुझे रात के इंटरनेट की अच्छी स्पीड से थोड़ा बहुत पता था। धीरे धीरे हमारी गाड़ी नेताला, गोरसाला, भटवारी होते हुए हरसिल पहुंचने वाली थी। रास्ते में कुछ यात्री उतर भी गए और फिर कुछ मिल भी गए। एक दो सहयात्री को उलटी भी आयी। किसी एक को उलटी होने से बाकियो को उसकी गंध से भी उल्टिया आने लगती है। थोड़े शीशे खोल देने से ठंडी हवा से सभी का मन सही हो गया। पहाड़ो में उल्टियां, जी मचलाना, सर में दर्द होना आम बात होती है। ऐसे में कुछ दवाई रखना सही होता है। हमारे पेट में कुछ था ही नहीं जो की बहार आता।
थोड़ी देर बाद हमारे ड्राइवर साहब से कहा की "आप दोनों को हरसिल जाना है ना आप यही उतर जाओ"। हमे तो सिर्फ सड़क ही दिख रही थी, हमने पूछा "यहीं पे, यहाँ तो कुछ नहीं है"। ड्राइवर ने कहा "किनारे से निचे उतरने का रास्ता है और सामने हरसिल"। थोड़ी देर बाद हमे पता चला की सड़क आगे से घूम के वापस निचे के ओर आती है। समय बचाने के लिए ऊपर सड़क पे उतरना सही रहता है।
गाड़ी से निचे उतरते हुए बहुत खुशी हुई क्यूंकि जहाँ आने की तैयारी हम महीनो से कर रहे आज हम वही थे। पहाड़ो ने निचे उतरते सबसे पहले भेड़ के झुण्ड का सामना हुआ। पहाड़ो में ये शायद आम बात होगी, लेकिन मेरे लिए ये पहला एहसास था। रोहित थोड़ा किनारे था तो भेड़ उसके पास से नहीं जा रही थी और मैं उनके बिच में। भेड़ो की झुण्ड में खड़े, मेरी शक्ल बन गयी थी और रोहित मेरी शक्ल देख के हस रहा था। करीब 5 मिनट तक एक जगह पे पुतले की तरह खड़े होने के बाद भेड़ का झुण्ड समाप्त हुआ। उसके बाद एक पुल था जहाँ से हरसिल की शुरुवात हो जाती है।
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भेड़ का झुण्ड |
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हरसिल के पुल से |
समय करीब 10 बज रहे थे। चुकी अब हमे गंगोत्री भी जाना था तो हमारे पास हरसिल में घूमने को करीब 2 घंटे ही थे। एक तो हमे जोरो से भुख लगी थी और दूसरी लघुशंका। एक होटल में पराठे का आर्डर दे के हमने वाशरूम की जगह पूछी, खैर इतना समझ आया की सामने से होते हुए आगे जाओ तो दिख जायेगा। वो रास्ता ऐसा था जैसा किसी की बागान के किनारे का रास्ता। हम चल पड़े, और फिर हमे सेब के पेड़ पे, लदे हुए सेब दिखे। हमने अपने आप को कण्ट्रोल करते हुए फोटो सेशन शुरू किया।
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सेब के पेड़ और मैं |
सेब तो हमने अबतक दूकान पे ही देखे थे, आज पहली बार इनके पेड़ देख अजीब सा पागलपन छा गया था। हमने एक दीवाल फांद के अंदर जा के कुछ फोटो और लिए। हम भी शरीफ थे, पेड़ से एक भी सेब नहीं तोड़ा। मुझे रोहित की ली हुई फोटो एक बार में पसंद आ जाती है और ठीक इसका उल्टा रोहित के साथ है। कितना कण्ट्रोल करते, और रोहित अपने फोटो से संतुष्ट ही नहीं हो रहा था। किसी तरह रोहित को मना के आगे बढ़ चले और वाशरूम मिला।
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हमने एक भी तोड़े नहीं |
अब हमसे फुर्सत वाला इंसान शायद ही कोई होगा। वही बगल में कुछ लोग दिखे जो पेड़ से सेब तोड़ के जमा कर रहे थे। मेरी हिम्मत नहीं हुई उनसे सेब मांगने की तो मैंने रोहित को फिर से आगे कर दिया। वैसे पहाड़ी लोग बहुत अच्छे होते है पड़ मुझे झिझक सी हो रही थी। रोहित को 2 सेब उन्होंने दिए खाने लिए। अब मुझमे भी हिम्मत सी आ गयी थी। हमने उनसे पूछ के खुद 2 सेब और तोड़े। अब ध्यान आया की हमने होटल में आर्डर भी कर रखा था।
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हरसिल में झरना से बहता हुआ पानी |
सेब को बैग में रख के, हम तुरंत होटल पहुँचे और पराठो को इस पापी दुनिया के छुटकारा दिलवा दिया। अब हमने घूमने का निश्चय किया। चल पड़े इधर उधर हरसिल को जानने-देखने। हमे वहाँ एक स्कूल, कुछ घर, होटल और हसीं वादिया मिली। हरसिल में अच्छा खासा रुकने का साधन है ये हमे वहाँ जा के पता चला। हरसिल का प्रसिद्ध डाकघर भी दिखा जो फिल्म "राम तेरी गंगा मैली" के एक सीन में दिखाया गया है। अंदर जा के नदी और घाटी का अद्भुत दृश्य देखने को भी मिला। कुल मिला के ऐसा लगा की इनते दिनों का इंतज़ार व्यर्थ नहीं गया। लेकिन समय की कमी हमे खल रही थी।
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हरसिल का प्रसिद्ध डाकघर |
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हरसिल घाटी का एक दृश्य |
हरसिल एक हिल स्टेशन है जहाँ आप आराम से 1-2 दिन बिता सकते है। लेकिन हम जैसे प्राइवेट नौकरी वालो के लिए इतनी ऐश ही काफी था। करीब 12:30 बजे हम उसी मुख्य सड़क (उत्तरकाशी -गंगोत्री हाईवे) पे थे। वहाँ से गंगोत्री मात्र 25 किलोमीटर है, मतलब कोई गाड़ी मिल जाये तो 1 घंटे से भी कम समय लगने की उम्मीद। सुबह जो भूल हुई थी उसका नतीजा अभी भुगतना पड़ा हमे। हमे एक भी गाड़ी नहीं मिली जो गंगोत्री जा रही हो। हमने लिफ्ट लेने की भी भरपूर कोशिश करी, लेकिन वो भी व्यर्त साबित हुई।
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इंतज़ार करते हुए, रोहित |
आम दिनों में शायद इतनी दिक्कत नहीं होती और जल्द ही हमे इस दिक्कत का पता चल गया। हरसिल से थोड़ी आगे एक पूजा समारोह चल रहा था और सभी की सभी गाड़िया उसी में व्यस्त थी। आस पास गांव के लोग गाड़ी बुक कर के इस पूजा समारोह में सिरकत कर रहे थे। ऊपर मुख्य सड़क पे हम दो और बाकि 2 लोग ही थे, जो हमसे बाद में आये थे। उन्हें उत्तरकाशी की तरफ जाना था और हमे गंगोत्री की तरफ। ये सब जानकारी उन लोगो से ही मिली थी।
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मुख्य मार्ग पे इंतज़ार करता हुआ मैं |
इंतज़ार करते करते जब घड़ी का काटा 2 पार करने लगा तब मुझे चिंता होने लगी। वापसी का सफर 3-4 घंटे और आगे का सफर 1 घंटे, कुल मिला के 7 या उससे ज्यादा बज जाने थे। धीरे धीरे मैं रोहित को समझाने लगा की अगर हम गंगोत्री की तरफ बढे तो वापसी में देर हो जाएगी। रोहित को भी ये बात समझ आ रही थी लेकिन उसने हार नहीं मानी। एक गाडी हमारे सामने ही खली हुई, उससे पूछा तो कहा की बुक करोगे तब गंगोत्री चलूँगा, किराया 1500 वो भी सिर्फ जाने का। एक पल तो दिमाग में आया चलते है जो होगा सो होगा। लेकिन दिल के आगे दिमाग ने काम करना चालू कर दिया था अब।
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सड़क से हरसिल का नज़ारा |
रोहित से दुबारा वार्तालाप का नतीजा ये हुआ की अब हमारा प्लान बदल चूका था और हमे अब वापसी की गाड़ी पकड़नी थी। हमने गंगोत्री की तरफ जाने में ध्यान ही नहीं दिया की बहुत साडी गाड़िया वापस भी जा चुकी थी। सुबह टैक्सी स्टैंड पे हमे एक दूसरे गाड़ी वाले का फ़ोन नंबर भी मिला था, उसने कहा था की अगर हरसिल से आज ही वापसी करोगे तो बता देना। उसे भी हरसिल से आज ही वापस होना था। अब एक और नयी परेशानी थी हमारे सामने। हमारे फोन में नेटवर्क नहीं, ड्राइवर साहब से फ़ोन कैसे किया जाये। इतने में सामने वाले लोकल बन्दे का मोबाइल बजा और वो बात करने लगा। हमने उत्सुकता वस पूछ ही लिया कौन सा नेटवर्क है, उन्होंने बताया बीएसएनएल। (हरसिल में उस समय एयरटेल और जिओ के नेटवर्क नहीं आ रहे थे।)
वो दोनों लोकल बन्दे करीब 1 घंटे से हमे देख रहे थे और हमारे परेशानी से वखिफ थे। हमने उनसे फ़ोन माँगा कॉल करने के लिए और उन्होंने बेझिझक हमे अपना फ़ोन दे दिया। उनके इस बेझिझक पन से मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ, होता भी क्यों नहीं, हम दिल्ली में रहने वालो के साथ ऐसे कोई पेश आएगा तो आश्चर्य तो होगा ही। हमने उस ड्राइवर से बात की और उसने कहा की मैं थोड़ी में वहाँ आ जाऊंगा। अब राहत थी की हम अब शाम तक वापस उत्तरकाशी पहुँच जायेंगे। थोड़ी देर में वो गाड़ी भी आ गई और फिर से किस्मत अनुसार पीछे वाली सीट ही मिली। एक तो हरसिल में ज्यादा समय नहीं दे पाए और उसके बाद गंगोत्री भी नहीं जा पाए। मन में इन दोनों बातो का दुःख लिए वापस लौट रहे थे। रास्ते भर हमने फोटो लिए और वीडियो बनाते रहे। शाम होते होते हम वापस उत्तरकाशी में थे।
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किस्मत अनुसार हमेशा पीछे वाली सीट |
उजाला अभी भी था और इस शाम हमने NIM जाने का फैसला किया। NIM अगर सड़क से जाये तो बहुत दूर है, कहने का मतलब 3-4 किलोमीटर की दुरी है और एक दूसरा रास्ता भी जो पहाड़ो से होता हुआ, समय कम लगता है परन्तु चढ़ाई अच्छी खासी वाली है, ये शॉटकट वाला रास्ता है। लोगो से पूछते हुए हम शॉर्टकट वाला रास्ता अपनाते हुए NIM पहुँचे। NIM का कैंपस भी बहुत बड़ा था, शुरुवात में ही हॉस्टल और टीचर गेस्ट हाउस थे। वहाँ के लोगो से पूछते हुए हम उसके मुजियम की ओर बढ़ चले। हम वहाँ पहुँचे ही थे की रोहित ने वापस चलने की ज़िद करी। उसका पाचन किर्या उसका साथ नहीं दे रहा था। मुझे भी वापसी ही उचित लगी और सड़क होते हुए वापस आने लगे।
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NIM |
बिच रास्ते में हमे कुछ पेड़ के सूखे हुए डिज़ाइन वाले फल दिखे। समझ नहीं आया तो खेलते हुए उसे अपने साथ लाने लगे। बिच रास्ते में, स्थानीय लोगो से पता चला की ये चीज़ ठण्ड के लिए बचा के रखते है और इससे ठण्ड के मौसम में आग जलाते है। रास्ते से हमे उत्तरकाशी का बिलकुल ही अलग नज़ारा दिखा। हरे खेत, फिर कुछ मकान, फिर नदी और फिर पहाड़। इतना सारा एक फ्रेम में था तो हमने फोटो लेना बेहतर समझा। फिर आगे बढ़ते हुए एक घर नज़र आया जिसके छत पे एक गाड़ी खड़ी थी, मतलब पार्किंग ही छत पे थी। उसके बाद सारे फ्लोर उसके निचे। हमे बहुत अजीब सा लगा और उसके बाद से हमने ध्यान दिया तब देखा की पहाड़ो में ऐसी ही बनावट होती है।
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किसी को इसका नाम पता है तो जरूर बताये |
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उत्तरकाशी का बेहरतीन नज़ारा |
अब रास्ते में कुछ नहीं था तो हम अपने होटल आ गए। रोहित को भी आराम मिल गया। उसने एक दवाई भी ली। अब हमे वापस मणिकर्णिका घाट जाना था क्यूंकि हमे पता चला था की 7 बजे वहाँ पे आरती होती है और समय करीब 6 से थोड़ा ज्यादा ही हुआ था। कोई काम नहीं था और कल वापसी करनी थी इसलिए सोचा वही थोड़ा समय बिताएंगे। 5 मिनट से भी कम समय पे हम घाट पे थे। वैसे अभी 6:30 भी नहीं हुए थे की आरती की तैयारी शुरू हो चुकी थी। तुरंत ही आरती शुरू हुई और पूरा घाट मंत्रो के उच्चारण से झम झमा उठा। आरती में भाग लेने का मौका हमे भी मिला। शायद, उस दिन का सबसे शांति भरा पल वही था। दिन भर का सारा कार्यकर्म चौपट होने के बाद अब जा के मन में शांति थी।
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आरती मणिकर्णिका घाट पे |
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गंगा मैया के किनारे फुर्सत के कुछ पल |
अब समय देखा तो 7 भी नहीं बजे थे। मन में ख्याल आया की अगर हम 7 बजे का मान के आरती के लिए आते तो हमे कुछ भी चीज़ के दर्शन नहीं होते। थोड़ी देर और वही शाम बिताने के बाद बाजार से हमने थोड़ी बहुत खरीदारी भी करी और गंगा जल लाने के लिए कुछ डिब्बे भी ख़रीदे। हमने कल वाले होटल में ही दुबारा खाना खाया और अपने होटल आ गए। फिर से दिन भर का हिसाब किताब का लेखा जोखा हुआ। वो कहते है ना "इतिहास अपने आप को दोहराता है", ये इतिहास कई सौ साल पुराना नहीं बस एक दिन ही पुराना था। आज की रात भी कल जैसा ही हुआ। फिर से मेरी नींद करीब ३ घंटे सोने के बाद खुल गयी, इंटरनेट पे सोशल जन्दगी से रूबरू हुआ और फिर से रोहित को रात में ही उठाया। वो तो मुझे आज भी इस बात के लिए सुनाता है और मैं गर्व के साथ सुनता हूँ। हा हा हा।
तीसरा दिन वापसी का था और देहरादून से रात 11:30 बजे की ट्रैन थी।.....यात्रा जारी है... तीसरा दिन देहरादून...
तब तक कुछ और तस्वीरो का आनंद उठाये...
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रास्ते में कही |
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NIM से वापसी में |
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खूबसूरत रास्ते |
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पार्किंग बोले तो - छत |
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झूलते हुए पुल से |
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फिर से |
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रोहित आरती में |
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मैं भी, गंगा मैया की आरती में |