Tuesday, 27 November 2018

उत्तरकाशी - हरसिल - देहरादून यात्रा 2017 (भाग 3)

हरसिल यात्रा

अब तक आपने पढ़ा की कैसे मेरा और रोहित का उत्तरकाशी-हरसिल यात्रा का प्लान बना, कैसे हम दिल्ली से उत्तरकाशी आये और कैसे कल शाम हमने उत्तरकाशी भ्रमण किया।
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अब आगे...

आज हमारी यात्रा का दूसरा दिन था और हमारे पास सिर्फ आज का दिन था हरसिल घूमने के लिए। हरसिल उत्तरकाशी से करीब 75 किलोमीटर दूर है मतलब गाड़ी से 3 घंटे से कम का समय लगना चाहिए। वैसे, हमने सोचा था सुबह जल्दी निकलने से 10 बजे तक हरसिल पहुँच जायेंगे। 4-5 घंटे घूम के दोपहर 3-4 बजे हरसिल से वापसी कर लेंगे और शाम 6-7 बजे तक उत्तरकाशी। खैर,अगर योजना इतनी ज्यादा बनती है तो कुछ ना कुछ गड़बड़ जरूर होती है। हमारे साथ भी ऐसा ही होने वाला था।

उत्तरकाशी में भागीरथी नदी का बहाव तेज़ है, घाट बने हुए है साथ ही एक जगह लोहे की कड़ी भी बंधी हुई है। इतनी सुबह गंगा मैया में जाकर पानी में डुबकी लगाना उचित नहीं समझा और होटल से ही नहा के घाट पे पहुँचे। घाट पे १-२ लोग ही थे, हमने फिर से गंगा मैया को प्रणाम कर जल के छींटे अपने ऊपर डाला। उस शांति भरे माहौल में हमने कुछ समय वही बिताया। गंगा मैया की गोद से उत्तरकाशी घाटी को देखते रहना अपने आप में सुकून वाला पल था। समय की नज़ाकत को समझते हुए होटल जा के कपडे बदल के अपने आगे की सफर पे निकलना सही समझा।

सुबह फिर से घाट पे 

करीब 7 बजे से पहले हम टैक्सी स्टैंड पे थे। वहाँ पे 12 सीट वाली चार पहिया SUV वाहनों का जमावड़ा था। हरसिल के लिए गाड़ी मिल गयी लेकिन सामने वाली सीट पहले से ही बुक थी। हमने बिच में बैठने का तय करके ड्राइवर से मोल भाव कर लिया, वैसे मोल भाव करना बेकार था क्यूंकि एक ही रेट था वहाँ पे। टैक्सी स्टैंड से गंगोत्री और हरसिल दोनों जगह की गाड़िया थी। मन में ख्याल आया की पहले गंगोत्री चलते है उधर से आने में हरसिल उतर जायेंगे लेकिन 4 घंटे जाना (100 किलोमीटर की दुरी के हिसाब से), 4 घंटे आना और कम से कम 1 घंटे गंगोत्री, शाम के  5 बजने का संकेत था, फिर हरसिल नहीं घूम पाते। दुविधा इस लिए भी थी की गंगोत्री एक धाम (उत्तराखंड के 4 धाम में से एक) में गिना जाता है, इसका महत्व बहुत ज्यादा हैं और हरसिल का ख्वाब पिछले 3-4 महीनो से हमारे आखो में था। उस समय हमे हरसिल या गंगोत्री में से एक चुनना था, लेकिन लोभ के कारण हमने दोनों चुना और हमने तय किया पहले हरसिल में थोड़ा बहुत घूम लेंगे और फिर गंगोत्री चले जायेंगे। हमे वहाँ मौजूद बाकि ड्राइवर लोग से पता चला की हरसिल से गंगोत्री की गाड़ी मिल जाएगी और कोई दिक्कत नहीं होगी। तो हमारा यही प्लान तय हुआ। शायद, यही हमने भूल कर दी।

सुबह बस चाय की दूकान खुली हुई थी और नास्ता करने का कोई चारा नहीं था। हमने बिस्कुट के पैकेट लेके अपनी पेट की भुख को थोड़ा शांत किया। धीरे धीरे कुछ और सावरिया आ गयी और हमे बिच वाली सीट का भी त्याग करना पड़ा, क्यूंकि जब तक सवारी पूरी नहीं होती तो ड्राइवर ले के चलता नहीं। मजबूरी में ही सही हमे पीछे वाली सीट पे बैठना पड़ा। धीरे धीरे समय बढ़ता जा रहा था और हमारे सब्र के बांध को तोड़ने की कोशिश कर रहा था। 7 बजे से 7:30 हो गए और फिर उससे भी ज्यादा। बाकि सवारी तो हो गयी लेकिन आगे वाली सीट के सवारी जिन्होंने कल शाम में ही बुक कर लिया था उनका कोई नमो निशान नहीं था। किसी तरह से ड्राइवर को उनका नंबर मिला और फिर ड्राइवर को बताया की आप उनके घर के पास से ही उन्हें ले लेना।

अब गाड़ी चली तो अच्छा लगा लेकिन फिर उनके घर पे पास इंतज़ार करना पड़ा। करीब 8 बजे से थोड़ी देर पहले, सभी लोग आ गए और हमारी गाड़ी हरसिल घाटी के लिए चल पड़ी। भुख हमे लगी हुई थी तो हमने ड्राइवर वाले भैया से कह दिया की कहीं नास्ते के लिए रोक लेना। छोटी गाड़ी का एक फ़ायदा तो होता है, ये तुरंत अपनी गति में आ जाती है, कुछ दूर तक जहाँ समतल और सीधा रास्ता था, हमारे ड्राइवर साहब ने 80 की गति तक दौड़ा दी। थोड़ा आश्चर्य हुआ पहाड़ो में इतनी गति देख के। सुबह का मौसम, गाड़ी की स्पीड और पहाड़ो में सितम्बर का महीना, ठण्ड लगना तो लाजमी था। गाड़ी के पीछे वाले शीशे से ठंडी ठंडी हवा मुझे तो बहुत अच्छी लग रही थी, लेकिन शायद सहयात्री को पसंद नहीं आयी। मज़बूरी में शीशे बंद करने पड़े।

मैं और रोहित दोनों रास्ते और पहाड़ो की खूबसूरती में खो गए थे और हमे आपस में भी बातचीत करने का ख्याल नहीं आ रहा था। रास्ते का आईडिया मुझे रात के इंटरनेट की अच्छी स्पीड से थोड़ा बहुत पता था। धीरे धीरे हमारी गाड़ी नेताला, गोरसाला, भटवारी होते हुए हरसिल पहुंचने वाली थी। रास्ते में कुछ यात्री उतर भी गए और फिर कुछ मिल भी गए। एक दो सहयात्री को उलटी भी आयी। किसी एक को उलटी होने से बाकियो को उसकी गंध से भी उल्टिया आने लगती है। थोड़े शीशे खोल देने से ठंडी हवा से सभी का मन सही हो गया। पहाड़ो में उल्टियां, जी मचलाना, सर में दर्द होना आम बात होती है। ऐसे में कुछ दवाई रखना सही होता है। हमारे पेट में कुछ था ही नहीं जो की बहार आता।

थोड़ी देर बाद हमारे ड्राइवर साहब से कहा की "आप दोनों को हरसिल जाना है ना आप यही उतर जाओ"। हमे तो सिर्फ सड़क ही दिख रही थी, हमने पूछा "यहीं पे, यहाँ तो कुछ नहीं है"। ड्राइवर ने कहा  "किनारे से निचे उतरने का रास्ता है और सामने हरसिल"। थोड़ी देर बाद हमे  पता चला की सड़क आगे से घूम के वापस निचे के ओर आती है। समय बचाने के लिए ऊपर सड़क पे उतरना सही रहता है।

गाड़ी से निचे उतरते हुए बहुत खुशी हुई क्यूंकि जहाँ आने की तैयारी हम महीनो से कर रहे आज हम वही थे। पहाड़ो ने निचे उतरते सबसे पहले भेड़ के झुण्ड का सामना हुआ। पहाड़ो में ये शायद आम बात होगी, लेकिन मेरे लिए ये पहला एहसास था। रोहित थोड़ा किनारे था तो भेड़ उसके पास से नहीं जा रही थी और मैं उनके बिच में। भेड़ो की झुण्ड में खड़े, मेरी शक्ल बन गयी थी और रोहित मेरी शक्ल देख के हस रहा था। करीब 5 मिनट तक एक जगह पे पुतले की तरह खड़े होने के बाद भेड़ का झुण्ड समाप्त हुआ। उसके बाद एक पुल था जहाँ से हरसिल की शुरुवात हो जाती है।

भेड़ का झुण्ड
हरसिल के पुल से



समय करीब 10 बज रहे थे। चुकी अब हमे गंगोत्री भी जाना था तो हमारे पास हरसिल में घूमने को करीब 2 घंटे ही थे। एक तो हमे जोरो से भुख लगी थी और दूसरी लघुशंका। एक होटल में पराठे का आर्डर दे के हमने वाशरूम की जगह पूछी, खैर इतना समझ आया की सामने से होते हुए आगे जाओ तो दिख जायेगा। वो रास्ता ऐसा था जैसा किसी की बागान के किनारे का रास्ता। हम चल पड़े, और फिर हमे सेब के पेड़ पे, लदे हुए सेब दिखे। हमने अपने आप को कण्ट्रोल करते हुए फोटो सेशन शुरू किया।

सेब के पेड़ और मैं 
सेब तो हमने अबतक दूकान पे ही देखे थे, आज पहली बार इनके पेड़ देख अजीब सा पागलपन छा गया था। हमने एक दीवाल फांद के अंदर जा के कुछ फोटो और लिए। हम भी शरीफ थे, पेड़ से एक भी सेब नहीं तोड़ा। मुझे रोहित की ली हुई फोटो एक बार में पसंद आ जाती है और ठीक इसका उल्टा रोहित के साथ है। कितना कण्ट्रोल करते, और रोहित अपने फोटो से संतुष्ट ही नहीं हो रहा था। किसी तरह रोहित को मना के आगे बढ़ चले और वाशरूम मिला।
हमने एक भी तोड़े नहीं
अब हमसे फुर्सत वाला इंसान शायद ही कोई होगा। वही बगल में कुछ लोग दिखे जो पेड़ से सेब तोड़ के जमा कर रहे थे। मेरी हिम्मत नहीं हुई उनसे सेब मांगने की तो मैंने रोहित को फिर से आगे कर दिया। वैसे पहाड़ी लोग बहुत अच्छे होते है पड़ मुझे झिझक सी हो रही थी। रोहित को  2 सेब उन्होंने दिए खाने लिए। अब मुझमे भी हिम्मत सी आ गयी थी। हमने उनसे पूछ के खुद 2 सेब और तोड़े। अब ध्यान आया की हमने होटल में आर्डर भी कर रखा था।
हरसिल में झरना से बहता हुआ पानी

सेब को बैग में रख के, हम तुरंत होटल पहुँचे और पराठो को इस पापी दुनिया के छुटकारा दिलवा दिया। अब हमने घूमने का निश्चय किया। चल पड़े इधर उधर हरसिल को जानने-देखने। हमे वहाँ एक स्कूल, कुछ घर, होटल और हसीं वादिया मिली। हरसिल में अच्छा खासा रुकने का साधन है ये हमे वहाँ जा के पता चला। हरसिल का प्रसिद्ध डाकघर भी दिखा जो फिल्म "राम तेरी गंगा मैली" के एक सीन में दिखाया गया है। अंदर जा के नदी और घाटी का अद्भुत दृश्य देखने को भी मिला। कुल मिला के ऐसा लगा की इनते दिनों का इंतज़ार व्यर्थ नहीं गया। लेकिन समय की कमी हमे खल रही थी।

हरसिल का प्रसिद्ध डाकघर 

हरसिल घाटी का एक दृश्य

हरसिल एक हिल स्टेशन है जहाँ आप आराम से 1-2 दिन बिता सकते है। लेकिन हम जैसे प्राइवेट नौकरी वालो के लिए इतनी ऐश ही काफी था। करीब 12:30 बजे हम उसी मुख्य सड़क (उत्तरकाशी -गंगोत्री हाईवे) पे थे। वहाँ से गंगोत्री मात्र 25 किलोमीटर है, मतलब कोई गाड़ी मिल जाये तो 1 घंटे से भी कम समय लगने की उम्मीद। सुबह जो भूल हुई थी उसका नतीजा अभी भुगतना पड़ा हमे। हमे एक भी गाड़ी नहीं मिली जो गंगोत्री जा रही हो। हमने लिफ्ट लेने की भी भरपूर कोशिश करी, लेकिन वो भी व्यर्त साबित हुई।

इंतज़ार करते हुए, रोहित   

आम दिनों में शायद इतनी दिक्कत नहीं होती और जल्द ही हमे इस दिक्कत का पता चल गया। हरसिल से थोड़ी आगे एक पूजा समारोह चल रहा था और सभी की सभी गाड़िया उसी में व्यस्त थी। आस पास गांव के लोग गाड़ी बुक कर के इस पूजा समारोह में सिरकत कर रहे थे। ऊपर मुख्य सड़क पे हम दो और बाकि 2 लोग ही थे, जो हमसे बाद में आये थे। उन्हें उत्तरकाशी की तरफ जाना था और हमे गंगोत्री की तरफ। ये सब जानकारी उन लोगो से ही मिली थी।

मुख्य मार्ग पे इंतज़ार करता हुआ मैं 
इंतज़ार करते करते जब घड़ी का काटा 2 पार करने लगा तब मुझे चिंता होने लगी। वापसी का सफर 3-4 घंटे और आगे का सफर 1 घंटे, कुल मिला के 7 या उससे ज्यादा बज जाने थे। धीरे धीरे मैं रोहित को समझाने लगा की अगर हम गंगोत्री की तरफ बढे तो वापसी में देर हो जाएगी।  रोहित को भी ये बात समझ आ रही थी लेकिन उसने हार नहीं मानी। एक गाडी हमारे सामने ही खली हुई, उससे पूछा तो कहा की बुक करोगे तब गंगोत्री चलूँगा, किराया 1500 वो भी सिर्फ जाने का। एक पल तो दिमाग में आया चलते है जो होगा सो होगा। लेकिन दिल के आगे दिमाग ने काम करना चालू कर दिया था अब।

सड़क से हरसिल का नज़ारा 
रोहित से दुबारा वार्तालाप का नतीजा ये हुआ की अब हमारा प्लान बदल चूका था और हमे अब वापसी की गाड़ी पकड़नी थी। हमने गंगोत्री की तरफ जाने में ध्यान ही नहीं दिया की बहुत साडी गाड़िया वापस भी जा चुकी थी। सुबह टैक्सी स्टैंड पे हमे एक दूसरे गाड़ी वाले का फ़ोन नंबर भी मिला था, उसने कहा था की अगर हरसिल से आज ही वापसी करोगे तो बता देना। उसे भी हरसिल से आज ही वापस होना था। अब एक और नयी परेशानी थी हमारे सामने। हमारे फोन में नेटवर्क नहीं, ड्राइवर साहब से फ़ोन कैसे किया जाये। इतने में सामने वाले लोकल बन्दे का मोबाइल बजा और वो बात करने लगा। हमने उत्सुकता वस पूछ ही लिया कौन सा नेटवर्क है, उन्होंने बताया बीएसएनएल। (हरसिल में उस समय एयरटेल और जिओ के नेटवर्क नहीं आ रहे थे।)

वो दोनों लोकल बन्दे करीब 1 घंटे से हमे देख रहे थे और हमारे परेशानी से वखिफ थे। हमने उनसे फ़ोन माँगा कॉल करने के लिए और उन्होंने बेझिझक हमे अपना फ़ोन दे दिया। उनके इस बेझिझक पन से मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ, होता भी क्यों नहीं, हम दिल्ली में रहने वालो के साथ ऐसे कोई पेश आएगा तो आश्चर्य तो होगा ही। हमने उस ड्राइवर से बात की और उसने कहा की मैं थोड़ी में वहाँ आ जाऊंगा। अब राहत थी की हम अब शाम तक वापस उत्तरकाशी पहुँच जायेंगे। थोड़ी देर में वो गाड़ी भी आ गई और फिर से किस्मत अनुसार पीछे वाली सीट ही मिली। एक तो हरसिल में ज्यादा समय नहीं दे पाए और उसके बाद गंगोत्री भी नहीं जा पाए। मन में इन दोनों बातो का दुःख लिए वापस लौट रहे थे। रास्ते भर हमने फोटो लिए और वीडियो बनाते रहे। शाम होते होते हम वापस उत्तरकाशी में थे।

किस्मत अनुसार हमेशा पीछे वाली सीट 

उजाला अभी भी था और इस शाम हमने NIM जाने का फैसला किया। NIM अगर सड़क से जाये तो बहुत दूर है, कहने का मतलब 3-4 किलोमीटर की दुरी है और एक दूसरा रास्ता भी जो पहाड़ो से होता हुआ, समय कम लगता है परन्तु चढ़ाई अच्छी खासी वाली है, ये शॉटकट वाला रास्ता है। लोगो से पूछते हुए हम शॉर्टकट वाला रास्ता अपनाते हुए NIM पहुँचे। NIM का कैंपस भी बहुत बड़ा था, शुरुवात में ही हॉस्टल और टीचर गेस्ट हाउस थे। वहाँ के लोगो से पूछते हुए हम उसके मुजियम की ओर बढ़ चले। हम वहाँ पहुँचे ही थे की रोहित ने वापस चलने की ज़िद करी। उसका पाचन किर्या उसका साथ नहीं दे रहा था। मुझे भी वापसी ही उचित लगी और सड़क होते हुए वापस आने लगे।

NIM 
बिच रास्ते में हमे कुछ पेड़ के सूखे हुए डिज़ाइन वाले फल दिखे। समझ नहीं आया तो खेलते हुए उसे अपने साथ लाने लगे। बिच रास्ते में, स्थानीय लोगो से पता चला की ये चीज़ ठण्ड के लिए बचा के रखते है और इससे ठण्ड के मौसम में आग जलाते है। रास्ते से हमे उत्तरकाशी का बिलकुल ही अलग नज़ारा दिखा। हरे खेत, फिर कुछ मकान, फिर नदी और फिर पहाड़। इतना सारा एक फ्रेम में था तो हमने फोटो लेना बेहतर समझा। फिर आगे बढ़ते हुए एक घर नज़र आया जिसके छत पे एक गाड़ी खड़ी थी, मतलब पार्किंग ही छत पे थी। उसके बाद सारे फ्लोर उसके निचे। हमे बहुत अजीब सा लगा और उसके बाद से हमने ध्यान दिया तब देखा की पहाड़ो में ऐसी ही बनावट होती है।

किसी को इसका नाम पता है तो जरूर बताये 
उत्तरकाशी का बेहरतीन नज़ारा 
अब रास्ते में कुछ नहीं था तो हम अपने होटल आ गए। रोहित को भी आराम मिल गया। उसने एक दवाई भी ली। अब हमे वापस मणिकर्णिका घाट जाना था क्यूंकि हमे पता चला था की 7 बजे वहाँ पे आरती होती है और समय करीब 6 से थोड़ा ज्यादा ही हुआ था। कोई काम नहीं था और कल वापसी करनी थी इसलिए सोचा वही थोड़ा समय बिताएंगे। 5 मिनट से भी कम समय पे हम घाट पे थे। वैसे अभी 6:30 भी नहीं हुए थे की आरती की तैयारी शुरू हो चुकी थी। तुरंत ही आरती शुरू हुई और पूरा घाट मंत्रो के उच्चारण से झम झमा उठा। आरती में भाग लेने का मौका हमे भी मिला। शायद, उस दिन का सबसे शांति भरा पल वही था। दिन भर का सारा कार्यकर्म चौपट होने के बाद अब जा के मन में शांति थी।

आरती मणिकर्णिका घाट पे 
गंगा मैया के किनारे फुर्सत के कुछ पल 
अब समय देखा तो 7 भी नहीं बजे थे। मन में ख्याल आया की अगर हम 7 बजे का मान के आरती के लिए आते तो हमे कुछ भी चीज़ के दर्शन नहीं होते। थोड़ी देर और वही शाम बिताने के बाद  बाजार से हमने थोड़ी बहुत खरीदारी भी करी और गंगा जल लाने के लिए कुछ डिब्बे भी ख़रीदे। हमने कल वाले होटल में ही दुबारा खाना खाया और अपने होटल आ गए। फिर से दिन भर का हिसाब किताब का लेखा जोखा हुआ। वो कहते है ना "इतिहास अपने आप को दोहराता है", ये इतिहास कई सौ साल पुराना नहीं बस एक दिन ही पुराना था। आज की रात भी कल जैसा ही हुआ। फिर से मेरी नींद करीब ३ घंटे सोने के बाद खुल गयी, इंटरनेट पे सोशल जन्दगी से रूबरू हुआ और फिर से रोहित को रात में ही उठाया। वो तो मुझे आज भी इस बात के लिए सुनाता है और मैं गर्व के साथ सुनता हूँ। हा हा हा।

तीसरा दिन वापसी का था और देहरादून से रात 11:30 बजे की ट्रैन थी।.....यात्रा जारी है... तीसरा दिन देहरादून...

तब तक कुछ और तस्वीरो का आनंद उठाये...

रास्ते में कही

NIM से वापसी में 

खूबसूरत रास्ते 

पार्किंग बोले तो - छत

झूलते हुए पुल से 

 फिर से 

रोहित आरती में  

मैं भी, गंगा मैया की आरती में 

Tuesday, 20 November 2018

उत्तरकाशी - हरसिल - देहरादून यात्रा 2017 (भाग 2)

उत्तरकाशी भ्रमण 

उत्तरकाशी में बारे में थोड़ी सी जानकारी:
काशी बनारस की ही दूसरा नाम है। काशी अपने आप में बहुत बड़ा नाम है और इसका मुख्य कारण काशी विश्वनाथ मंदिर है जो १२ में एक १ ज्योतिर्लिंग में आता है। लेकिन हम जिसकी चर्चा कर रहे है उसे उत्तर का काशी, उत्तरकाशी कहा जाता है। ये नाम इसलिए भी पड़ा है क्यूंकि यहाँ पे भी काशी विश्वनाथ जी का मंदिर है, मोक्ष प्राप्ति के लिए मणिकर्णिका घाट है। ये उत्तराखंड के गढ़वाल का एक जिला है। ऋषिकेश से लगभग 170 किलोमीटर दूर, ये भागीरथी नदी के किनारे बसा हुआ शहर है। उत्तरकाशी को प्राचीन समय में विश्वनाथ की नगरी कहा जाता था। कालांतर में इसे उत्तरकाशी कहा जाने लगा। केदारखंड और पुराणों में उत्तरकाशी के लिए 'बाडाहाट' शब्द का प्रयोग किया गया है। केदारखंड में ही बाडाहाट में विश्वनाथ मंदिर का उल्लेख मिलता है। पुराणों में इसे 'सौम्य काशी' भी कहा गया है। हिमालय की सुरम्य घाटी में उत्तरकाशी समुद्र तल से 1158 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है।

हम तैयार थे उत्तरकाशी भ्रमण के लिए 

पहले भाग में आपने पढ़ा की कैसे मेरा और रोहित का उत्तरकाशी-हरसिल का घूमने का प्लान बना और कैसे हम दिल्ली से उत्तरकाशी आये। 
पहला भाग (दिल्ली से उत्तरकाशी ) पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें
अब आगे...

होटल में फ्रेश होने के बाद, अब हम तैयार थे उत्तरकाशी भ्रमण के लिए। इकट्ठा की हुई जानकारी के अनुसार उत्तरकाशी में मंदिर और घाट खास है। हमारा अब का प्लान था पहले घाट पे जाना, थोड़ा आस पास घूम के उत्तरकाशी देखना, शाम में मंदिर में दर्शन और बाजार घूमना, 8-8:30 बजे तक वापस होटल आ जाना और रात्रि भोजन 9 बजे से पहले करने का। सुबह से सही से कुछ खाया पिया नहीं था तो भूख भी जोरो से लगी हुई लेकिन ये भी था की अगर ज्यादा खा लिए तो अभी घूम नहीं पाएंगे। समय करीब 4:30 बजे थे, कही दोपहर के खाने का नमो निसान नहीं था, या तो फ़ास्ट फ़ूड खाओ या फिर रात वाले खाने तक का इंतज़ार करो। इसलिए फिर से चौमिन वाले दूकान पे पहुँच गए। वहाँ चौमिन के साथ कोक और मोमो निपटाए। पास में ही बस स्टैंड था तो वहाँ जा के गंगोत्री/हरसिल जाने के बारे में जानकारी इकठ्ठा करि। उसके बाद, मणिकर्णिका घाट की तरफ बढ़ चले। वहाँ सबसे पहले, गंगा मैया को प्रणाम किया और फिर कुछ जल के छींटे हम दोनों ने अपने ऊपर डाले। थोड़ी देर वही रुक के भागीरथी नदी के साथ उत्तरकशी का नज़ारा देखने लगे। वहाँ से नदी के दूसरे तरफ कुछ दुकाने, फिर मकान और फिर ऊचे ऊचे पहाड़। उत्तरकशी का ये नज़ारा भी शानदार हैं। गंगा मैया के बहते हुए पानी की वो मधुर ध्वनि और सामने पर्वतो की श्रृंखला का अविरल नज़ारा आपको एक अलग दुनिया का एहसास करवाती है।

घाट से सामने का नज़ारा 
असीम शांति के कुछ पल 

उत्तरकाशी में 2 झूलते हुए पुल है, एक मणिकर्णिका घाट पे और दूसरा मंदिर के समीप है। हमे इसे पार करके दूसरे तरफ से उत्तरकाशी देखना था। पुल पे पहला कदम रखते हुए ही एहसास हुआ की ये हिल रही है और डर के मारे मेरी हालत ख़राब होने लगी। हिलते हुए पुल पे मुझे बहुत डर लगता है, ऋषिकेश में बहुत पहले भी मेरे साथ ऐसा हो चूका था। उस पल मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी, पुल से होते हुए दूसरी तरफ बढ़ने की। कुछ फोटो तो पुल के शुरुवात में ही लिए। अपने आप को भरोसा और साहस दिलाते हुए फिर से उसपे कदम रखा और आगे चला। पुल करीब 4-5 फ़ीट चौड़ा है और मैं बिलकुल बिच में चल रहा था। पुल के साइड में जाने की हिम्मत ही नहीं हो रही थी। साथ ही फोटो भी लेना था, रोहित मेरी हालत समझ रहा था या नहीं, मुझे नहीं पता, लेकिन उसके साथ देने के लिए, डर का सामना करते हुए हमने फिर ढेर सारे फोटो लिए। पुल के दूसरे तरफ कुछ दूकान है। दूसरी तरफ से उत्तरकाशी का नज़ारा बिलकुल अलग था। इधर से आपको पूरा उत्तरकाशी नज़र आ जाता है और इसकी चहल पहल भी। वहाँ पे हमे कुछ चाट पकोड़े के दुकान दिखे और हमे गोल गप्पे खाना सही समझा। पहाड़ो में इनका मज़ा कुछ और ही होता है क्यूंकि वहाँ के मसलो में अलग बात होती है।

घाट के पास वाला पुल
शायद मेरी हालत आप समझ रहे होंगे 

उस समय, उत्तरकाशी में जिओ सिम का कोई फ़ायदा नहीं था। एयरटेल के नेटवर्क से कॉल करना सम्भव था और इंटरनेट अपनी धीमी गति के साथ आँख मिचोली खेलने में व्यस्त रहती। हम दोनों के पास जिओ और एयरटेल दोनों थे और मेरे दोनों सिम में इंटरनेट पैक भी था। जिओ का साथ छूट जाने के कारण रोहित का मानो तो एक हाथ की कट गया था। उसका अपने फ़ोन पे इंटरनेट चलना मुमकिन नहीं था। अब रोहित इंटरनेट के लिए मेरे फ़ोन पे और मेरा फ़ोन नेटवर्क के ऊपर निर्भर था । गोल गप्पे खाने के बाद मेरे फ़ोन पे कुछ नोटिफिकेशन आये, इसका मतलब था की इंटरनेट काम कर रहा है। वहाँ पे मैंने फटाफट सोशल मीडिया से जुड़ के अपना हाल शेयर कर लिया पड़ रोहित नहीं कर सका, कोशिश तो करी लेकिन नेटवर्क ने धोखा दे दिया। (नोट: पहाड़ो बीएसएनएल के नेटवर्क सबसे सही रहते है)

रोहित के साथ अपने डर को छुपाते हुए 
थोड़ा आगे चलने के बाद एक रास्ता NIM की तरफ चला जा रहा था और दूसरा रास्ता घूम के विश्वनाथ मंदिर के तरफ। NIM - नेहरू इंस्टिट्यूट ऑफ़ माउंटेनियरिंग, ये पर्वतारोहियों के एक बेहत शानदार इंस्टिट्यूट जहाँ पर्वतारोहियों को प्रशिक्षण दिया जाता है और यहाँ कुछ मुजियम भी जहाँ आप पर्वतारोहण में इस्तेमाल होने औज़ार और इनका इतिहास देख सकते है। कुछ लोकल लोगो से बातचीत करने पे पता चला की पहाड़ो के ऊपर भी एक मंदिर है, कुटेटी देवी मंदिर, पड़ जाने में थोड़ा समय लगेगा।

शाम का समय और सूर्य देव अपनी लालिमा बिखेरते हुए मानो हमसे ये कह रहा की बेटा तुमसे ना हो पायेगा और हमे उनकी बात समझ आ रही थी। दूसरे झूले पुल से पहले हमे रोड पे पुल बना हुआ मिला। निचे देखा तो मानो जन्नत सा नज़ारा। एक छोटे झरने से बेहता हुआ पानी उस पुल के निचे से गुज़र रही थी जो आगे जा के ये भागीरथी नदी में लीन हो जा रही थी। साइड से हमे निचे तक पहुँचने का रास्ता भी दिखा। हम दोनों ने एक दूसरे को देखा और बिना कुछ कहे हुए सहमति बन गयी निचे जाने की। निचे उस झरने के पास जाके ऐसा लगा जैसे कोई छोटा सपना पूरा हो गया है। बचपन में जैसे छोटे झरने की तस्वीर अक्सर देखा करते थे आज हम उसे सामने से देख रहे थे। यहाँ छोटे मोटे गोल पत्थरो पे बैठ के खूब सारी फोटो ली। यहाँ हमे अपनी सोशल लाइफ में शेयर करने वाली कुछ बेहतरीन फोटो भी मिली।

हैं ना, शानदार नज़ारा !!!


इनकी भी तो फोटो निकालनी थी

वापस ऊपर आने के बाद हम दूसरे झूले पुल के रास्ता ढूंढ़ते हुए आगे बढ़ चले। ये पुल मुख्य सड़क के लेवल से थोड़ी निचे थी और साइड से सीधी नुमा रास्ता निचे उतरने का। फिर से वैसे ही पुल पार करना था और इसपे तो बाइक भी आ-जा रही थी। इसमें डर और भी ज्यादा था क्यूंकि बाइक के गुजरते वक़्त साइड होना पड़ रहा था। थोड़ा फोटो सेशन करते हुए और अपने डर को छुपाते हुए हमने फिर से पुल पार किया और विश्वनाथ मंदिर का रास्ता पूछते आगे चल पड़े। मंदिर के लिए एक रास्ता मुख्य सड़क से और एक रास्ता पीछे की गलियों से। हम, गलियों वाले रास्ते की तरफ से थे।

 पुल से रोहित और उत्तरकाशी का नज़ारा
दूसरे पुल के पास से 
ये हैं दूसरा पुल, और इसमें भी मैं बिलकुल बिच में


गलियों में मंदिर का कुछ पता नहीं चला और मंदिर से आगे पहुँच के पता करने लगे। एक दुकानदार वाले भैया ने बताया की आप थोड़ा पीछे चले जाओ वहाँ आपको एक गेट दिखेगा उसमे से अंदर जाना, फिर बड़ा सा ग्राउंड मिलेगा, उसमे सीधे चलते जाना, आपको मंदिर मिल जायेगा। इतनी सटीक जानकारी के कोई कैसे गलत जगह पहुँच जाता। हम भी मंदिर की ओर जाने वाली गली पे पहुँच गए। इतने में बारिश की कुछ बूंदे हमारे ऊपर आ के पड़ी। अरे ये क्या? अभी तो मौसम साफ़ था और अभी बारिश, हम तुरंत भागते हुए मंदिर परिशर में पहुँच गए और एक शेड के निचे खड़े हो गए। अब बारिश आपने चरम पे थी और हम दोनों भी थोड़े से भीग चुके थे। परिशर में एक विश्वनाथ जी का मंदिर है और दूसरा शक्ति मंदिर है। शक्ति मंदिर में एक त्रिशूल है जिसके बारे में ये कहा जाता है की आप अपना पूरा दम लगा लोगे तब भी उस त्रिशूल को नहीं हिला पाओगे, लेकिन वही त्रिशूल आप अपने हाथ की कानी ऊँगली से हिलाओगे तो त्रिशूल हिल जाएगी। खैर अभी बारिश जोर से हो रही थी और मात्र 10 फ़ीट आगे जा के प्रणाम करना भी मुश्किल हो रहा था।

शक्ति मंदिर का त्रिशूल 
मंदिर के सामने, बारिश में इंतज़ार 

हम जैसे हीरो घूमने जाने वक़्त रेनकोट या छाता कहा ले जाते है जिसका नुक्सान हमे अब हो रहा था। अब करीब 6 से ज्यादा बज चुके थे। निरंतर इंतज़ार करने के बाद भी जब बारिश कम नहीं हुई तब हम चिंता होने लगी। चिंता इस बात की थी पहाड़ो में 8-9 बजे तक ही खाना मिलता है। उसके बाद सभी दुकाने बंद हो जाती है। इंतज़ार करते करते अब, करीब 7 बज चुके थे। चिंता बढ़ने लगी थी, जैसे बारिश हलकी हुई हमने तुरंत भाग में मंदिर में दर्शन और प्रणाम किया और फिर से शेड में आ गए। अब तो 8 भी बज गए लेकिन इंद्रा देव को हमपे तरस नहीं आ रहा था। अब हमे वापस होटल जाना ही होगा, लेकिन पर्स और मोबाइल दोनों भीग जाने की चिंता। मंदिर में ही शेड के किनारे चलते चलते थोड़ा पीछे जा के देखा तो मुख्य सड़क और कुछ दुकाने दिखी जिनसे बड़ी मुश्किल से एक पन्नी (पॉलिथीन) का जुगाड़ हुआ। हमने अपने मोबाइल उसमे डाले, विश्वनाथ जी को प्रणाम किया और बारिश में निकल पड़े। बंद होती दूकान के बिच से अपने होटल का पता पूछते हुए अपने होटल पहुँच गए। अब खाने की चिंता भी थी और हम दोनों भीगे हुए भी, हमने तुरंत कपडे बदले और आ गए बस स्टैंड वाली सड़क पे। बारिश अब हलकी हो रही थी। वहाँ छोटे मोटे होटल खुले हुए, लेकिन हमे एक "होटल कम रेस्टोरेंट" पसंद आया। मेनू मंगवाया तो कुछ समझ नहीं आया, थाली का पता किया और Rs 80 की प्लेट बताई, हमने 2 प्लेट आर्डर कर दिए। घूमते वक़्त अपना एक ही फंडा है, एक समय जम के खा लो, क्यूंकि बाकि समय का कोई ठिकाना नहीं होता।

हमने होटल वाले से भी पूछा की हरसिल जाने के क्या साधन है। उन्होंने बताया की अभी तो एक बस ही दोपहर में 2 बजे खुलती है जो गंगोत्री तक जाती है या फिर वहाँ से करीब 500 मीटर आगे टैक्सी स्टैंड, वहाँ से आपको शेयर्ड टैक्सी मिल जाएगी। टैक्सी वाले गाड़ी फुल होने के बाद ही निकलते है तो आप कोशिश करना सुबह जल्दी ही पहुंचने की। ऐसी ही कुछ जानकारी हमे शाम में भी कुछ लोगो से मिली थी तो अब ये पक्का था की हमे शेयर्ड टैक्सी ही पकड़नी है। भरपेट खा के हम अपने होटल वापस पहुँचे। करीब 9 बज रहे थे, हमने टीवी चालू किया और टीवी देखने में व्यस्त हो गए। दिन भर का लेखा जोखा करते हुए करीब 10:30 बजे हमने सोने का फैसला लिया और सिर्फ बाथरूम वाली लाइट जला के सोने लगे, सुबह 5 बजे का अलार्म लगा के।

दो दोस्त बहुत दिनों बाद कही पहाड़ो में थे तो बातों का दौर कैसे नहीं चलता। कभी मैं कहता तो रोहित सुनता और कभी रोहित कहता तो मैं सुनता। कुछ पुराणी बातें और कुछ नई, कुछ दिल की बातें तो दिमाग की, 12 कब बज गए, हमे पता ही नहीं चला। अब रोहित ने कहा चुप हो जा, सुबह जल्दी भी उठना है। एक तो नई जगह ऊपर से पहाड़ो की ठण्ड, कम्बल तो थी पड़ नींद नहीं, फिर भी जैसे तैसे सोया। करीब 2 बजे बाद अचानक से नींद खुल गई, अपने फ़ोन को देखा तो पता चला की इंटरनेट आ रहा है और स्पीड भी सही है। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं जैसे किसी अंधे को दोनों आखँ मिल गए हो। मैंने तुरंत अपनी सोशल लाइफ देखने लगा, मतलब फेसबुक से है। फिर नेट चलाते चलाते हरसिल और उसके आस पास की जानकारी देखने लगा।

करीब डेढ़ घंटे के बाद मैंने रोहित को उठाना शुरू किया, ये कह के की नेट चल रहा है, तुझे कुछ करना तो नहीं। एक बार "हुह" कह के फिर से सोने लगा। मैंने दुबारा उसको हिलाया और कहा की भाई नेट की स्पीड सही है, नेट चला ले। ऐसा 3-4 बार हुआ और फिर उसने गुस्से में कहा की सोने देगा की नहीं लेकिन अब उसकी नींद टूट गयी थी। बेचारा, मन ही मन 4-5 गालिया तो मुझे दी ही दी होंगी। हाँ-ना करते हुए उसने भी अपनी सोशल लाइफ को जी लिया। अब जब 4:30 बज रहे थे तो फिर सोने से फ़ायदा नहीं था। होटल रूम के बहार आ के देखा तो असीम शांति थी। पहाड़ो में छोटी मोटी लाइट जलती हुई, सुबह का उजाला जैसे रात की कालिमा को चीरते हुए बढ़ रहा हो। मैंने रोहित को भी बहार गलियारे में आके इस दृश्य को देखने को कहाँ, उसका भी वही हाल था जो मेरा था, शांत और आचम्भित। थोड़ी देर के लिए हम अपने बचपन में चले गए जब हमे इतनी शांति मिलती थी। अब हमने निर्णय किया की नित्य क्रियाओ से होके मणिकर्णिका घाट पे दुबारा जायेंगे और सुबह में कुछ समय गंगा मैया के साथ बिताएंगे।

यात्रा जारी है...

 कुछ और तस्वीरें...
बारिश के खत्म होने का इंतज़ार 

शेड के निचे बारिश से बचते हुए 

शक्ति माता मंदिर 

काशी विश्वनाथ मंदिर, शक्ति माता मंदिर से 

रोहित को भी उसी पोज़ में फोटो चाहिए था  

होटल से उत्तरकाशी का नज़ारा 

Tuesday, 13 November 2018

उत्तरकाशी - हरसिल - देहरादून यात्रा 2017 (भाग 1)

दिल्ली से उत्तरकाशी

उत्तरकाशी से पहले 
मैं और मेरे बचपन का मित्र रोहित, दोनों को दिल्ली में रहते हुए बहुत साल हो गए थे। बहुत दिनों से घूमने की इक्छा थी, लेकिन कुछ निजी कारणों से घूमने के ऊपर ध्यान नहीं दे पाया। साथ ही पिछले साल सवान के महीने में मैंने अपने मित्र रोहित को उमेश के साथ (उत्तरकाशी यात्रा) जाने से रोका भी था (बारिश में पहाड़ो पे घूमना नहीं चाहिए, भूस्खलन कभी भी हो सकता है, 3-4 न्यूज़ पेपर की कटिंग भी भेज दी थी) और अंतिम समय पे रोहित को प्लान कैंसिल करना पड़ गया था। खैर अब किसी को यात्रा पे जाने से रोका था तो हर्ज़ाना भी भरना ही था। फिर मेरा और रोहित का हरसिल जाने का प्लान बना। हमने तय किया की बारिश के बाद ट्रैन से देहरादून जायेंगे, वहाँ से उत्तरकाशी के लिए उत्तराखंड परिवहन की बस और उत्तरकाशी से हरसिल के लिए बस या शेयर्ड टैक्सी कर लेंगे। हमने दिल्ली से देहरादून की टिकट भी करवा ली और यात्रा वाले दिन का इंतज़ार भी करने लगा। तैयारी भी पूरी हो गयी थी मतलब क्या ले के जाना हैं, दवाई कौन कौन सी ले जानी चाहिए और बाकि सब। फिर वो हुआ जिसका हमने उम्मीद नहीं किया था। बाबा गुरमीत राम रहीम सिंह को बंदी बनाने का आदेश आता है और पुरे उत्तर भारत में आगजनी और कर्फ्यू ही घटना की न्यूज़ आने लगी। ये घटना हमारे यात्रा वाला दिन से ठीक एक दिन पहले हुआ था। मेरे और रोहित के बिच में काफी देर तक वार्तालाप हुई, और घर वालो के बात मानते हुए हमने अपना टिकट कैंसिल करना पड़ा। वैसे अगर निकल भी जाते तो कुछ हानि नहीं होती लेकिन घर वालो की बात का सम्मान करना हमे आता है (मन मार के ही सही)।

दिल्ली में जली हुई बस की खबर। फोटो साभार:गूगल 
निराश तो हम दोनों बहुत हुए क्यूंकि सालो बाद कही जाने का प्लान बना था और अंतिम समय पे किसी अन्य कारण से कैंसिल करना पड़ गया था। लेकिन हमने भी ठान ली थी, जाना है तो जाना है आज नहीं तो कुछ दिन बाद ही सही। रोहित से वार्तालाप का दौर बनता रहा और 9 सितम्बर को दिल्ली से देहरादून वाली नंदा देवी AC एक्सप्रेस ट्रैन में टिकट करवा लिया (बहुत दिनों बाद निकल रहे थे AC में जाना तो बनता हैं ) और वापसी का भी उसी ट्रैन में ले लिया। इस बार पहले वाली कोई परेशानी नहीं आयी और हम सही समय पे रेलवे स्टेशन पहुँच गए । ट्रैन अपने निर्धारित समय से खुल गयी। मन में बहुत उत्साह था और खुशी भी बहुत थी। आखिर क्यों ना हो, बहुत दिनों बाद एक बार परेशानी झेलने के बाद अपने बचपन के मित्र के साथ किसी पहाड़ी क्षेत्र में जाने का मौका मिला था। रात का समय और AC डिब्बे से बाहर का नज़ारा देखना मुमकिन नहीं था, वैसे भी हमारी सीट बिच वाली और साइड में ऊपर वाली थी। घर वालो को फ़ोन से सूचित करके अपने सीट पे सोने की तैयारी करने लगे।

ट्रैन का देहरादून पहुँचने का समय सुबह 5:40 का है, और हमे उम्मीद थी की हमे 6 बजे कोई बस रेलवे स्टेशन के पास वाले बस स्टैंड से मिल जाएगी। और इसी उम्मीद के साथ हम नींद में सो गए। रात में एक दो बार नींद तो खुली लेकिन फिर सो गए। सुबह जब 5 बजे के करीब नींद खुली तब हमे पता चला की ट्रैन करीब 2 घंटे लेट चल रही है और कोच अटेंडेंट में बताया की ट्रैन थोड़े समय के लिए ही देहरादून स्टेशन पे रुकेगी, फिर वहाँ से हरिद्वार में आके लग जाएगी। खैर हमे इस बात की चिंता नहीं थी की ट्रैन देहरादून के बाद कौन से यार्ड में जा के लगेगी, हमे अब इस बात की थोड़ी बहुत चिंता होने लगी की इतनी लेट देहरादून से कोई बस मिलेगी या नहीं। खैर पाजिटिविटी बहुत थी तो हमने सोचा 'मिल ही जाएगी' और देहरादून स्टेशन आने का इंतज़ार करने लगे।

ट्रैन करीब डेढ़ घंटे लेट 7:05 में हमे देहरादून उतार दी। हमने अपने बैग लिए और चल पड़े बस स्टैंड पे (हिल वाली, जहाँ से पहाड़ो के लिए बस मिलती है)। वहाँ जा के देखा तो कुछ बस लगी हुई थी लेकिन किसी पे उत्तरकाशी का बोर्ड नहीं था। दिमाग में सौ तरह की बातें घूमने लगी की क्या करे। फिर किसी इंसान से पूछा तो उसने कहा की एक बार अंदर पता कर लो। पूछताछ के मामले में मैं हमेशा रोहित को आगे कर देता हूँ, इस बार भी रोहित को पूछताछ करने काउंटर पे भेजा, शायद कुछ पता चले।  वो तुरंत वापस आया और कहाँ की अब आज उत्तरकाशी की कोई बस नहीं है। अब, हम दोनों दिमाग ख़राब होना चालू हुआ। आज सुबह ही हुई और बस नहीं मिली तो पूरा दिन बर्बाद हो जायेगा। क्या करे क्या ना करे की स्थिति...

समझ नहीं आ रहा था की क्या करें। सबसे बड़ी टेंशन तो दिन बर्बाद होने की थी। रोहित ने अपने मित्र उमेश को फ़ोन लगाया ताकि उससे कुछ परामर्श ले सके। उसने कुछ महीने पहले ही उत्तरकाशी-गंगोत्री की यात्रा की थी। लेकिन उमेश रात्रि पहर वाली ड्यूटी के कारण सो रहा था और हमारा फ़ोन करना व्यर्त हुआ। फिर कही से दिमाग में आईडिया आया की प्राइवेट बस भी चलती होगी, उसका पता करते है। मैंने रोहित को फिर से बस के काउंटर पे जाके पता करने के लिए आगे कर दिया, हालाँकि ये उत्तराखंड परिवहन बस का काउंटर था फिर भी। इस बार खबर अच्छी थी, उन्होंने ने बताया की आप परेड ग्राउंड चले जाओ, वहाँ से आपको उत्तरकाशी की बस मिल जाएगी। बस काउंटर वाले भैया ने ये भी बता दिया की बहार निकल के रोड क्रॉस कर लेना और आपको ऑटो मिल जायेंगे।

अब जान में जान आयी। एक उम्मीद की किरण जागी। हम दोनों ने बिना कोई पल गवाए रोड क्रॉस कर के ऑटो देखने लगे। शेयर्ड ऑटो भी जल्द मिल गया जिसने हमे परेड ग्राउंड पे उतार दिया। 4-5 प्राइवेट बस खड़ी थी, तुरंत ऑटो वालो को पैसे दे के उत्तरकाशी की बस ढूंढ़ने लगे। तभी एक बन्दे ने पूछा "उत्तरकाशी"? हमने कहा "हाँ"। सामने जो बस लगी हुई है उसमे बैठ जाओ। हमने पूछा 2 सीट मिल जाएगी तो उसने बोला खुद ही देख लो, वैसे बस खाली है। उसके खाली होने का मतलब ये था की तुम्हारे लिए सीट है अभी। हम अपने सामान के साथ बस में चढ़ गए और फिर पता चला की पीछे वाली सीट पे बैठना होगा वो भी बिच में। एक बार तो विंडो वाली सीट होती तो काम चला भी लेते, लेकिन सबसे पीछे वाली वो भी बिच में- "ना हमे नहीं जाना इससे" कहकर उतर गए। फिर हम दोनों में बातचित हुई, 6-7 घंटे का सफर है, बिच में कही और एडजस्ट कर लेंगे का तय करते हुए दुबारा बस में चढ़े। लेकिन इस बार तो वो सीट भी फुल हो गयी थी। हमने सोचा अब, जो होगा सो होगा, खड़े खड़े ही चले जायेंगे। लेकिन फिर कुछ भले लोगो ने बताया की और भी बस, शेयर्ड टैक्सी मिल जाएगी ऐसे जाने की जरुरत नहीं। खड़े-खड़े थक जाओगे वो भी पहाड़ी रास्ते में। हम बस से फिर से उतर गए और वो बस 5 मिनट बाद फुल हो के चल पड़ी।

ठीक उसके बाद ही उत्तरकाशी की दूसरी बस वही साइड में ला के लगा दी गयी। हमारी खुशी का ठिकाना नहीं था अब। उत्तरकाशी वाली बस वो भी पूरी खाली, अपनी मन पसंद की सीट चुन सकते थे। लेकिन वो कहते है ना खुशिया ज्यादा देर नहीं टिकती वैसे ही हमारे साथ होने वाला था। ये बस देहरादून से ऋषिकेश-चम्बा होते हुए उत्तरकाशी जाएगी। इतने देर में उमेश का फ़ोन भी आ गया था और उसने बताया की सुवाखोली होते हुए वाली बस कम समय लेती है। (देहरादून से उत्तरकाशी जाने के 2 रूट हैं- एक सुवाखोली होते हुए जिसमे करीब 2 घंटे कम समय लगता है और दूसरा चम्बा होते हुए)। फिर से सोच विचार का दौड़ चला, थोड़ा जोर घटा गुना भाग भी हुआ की अब करे तो क्या करे।

ये बस करीब 2 घंटे का ज्यादा समय लेगी और सुवाखोली होते हुए अगली बस 1 घंटे बाद खुलेगी। करीब 5-10 मिनट सोच विचार विमर्श करने के बाद ये नतीजा पे आये की हम इसी बस से जायेंगे। 1 घंटे ही ज्यादा लगेंगे ना, ठीक है (2 घंटे कम समय लेती सुवाखोली वाली बस परन्तु 1 घंटे बाद खुलती), वैसे भी हमे कौन सा पहाड़ तोड़ने जाना था। आते वक़्त सुवाखोली तरफ से आने का निर्णय लेके, हमने 2 सीट बुक कर ली, बस में चढ़ने के साथ सामने वाली 2 सीट। कंडक्टर वाले भैया से पूछा की कितने बजे तक उत्तरकाशी उतार दोगे तो उसका जवाब था दोपहर 3 बजे तक। बस खुलने में 10-15 मिनट थे अभी, सोचा बस में कुछ खाने पिने के लिए ले लेते है, सुबह का समय था तो सिर्फ गुमटी ही दिख रही थी। थोड़ी देर ढूंढ़ने के बाद मुझे चिप्स और बिस्कुट के पैकेट मिल गए और फिर बस में आ के बस खुलने का इंतज़ार होने लगा। इतने में मौसम ने करवट बदली और बारिश की कुछ बूँदें धरती को नम करते हुए ना जाने कहा खो गयी। थोड़ी देर में बस करीब आधे से ज्यादा भर गयी थी और हमारी बस की यात्रा शुरू हुई। देहरादून से ऋषिकेश की सड़क बहुत अच्छी है, मौसम का खुशनुमा अंदाज़, हरे भरे जंगल और अपने गति से चलती हुई बस। बहुत ही सुखद एहसास था वो और ऐसे पल और भी अच्छे लगते है जब आपके साथ आपका मित्र होता है। 

पहाड़ो का पहला नज़ारा 
बस अब पूरी भरी नहीं थी तो इसका हर्ज़ाना कौन भरता। हम बस यात्रिओ को ही भरना पड़ा, अपना समय गवा के। ऋषिकेश में करीब 20 मिनट तक रोक के उसने सवारी भरी। ऋषिकेश को पहाड़ी यात्रा या क्षेत्र का द्वार भी माना जाता है। यहाँ से चारो धाम (यमुनोत्री धाम, गंगोत्री धाम, श्री केदारनाथ धाम और श्री बद्रीनाथ धाम) के लिए सड़क निकलती है, वैसे यमुनोत्री के लिए देहरादून से बड़कोट वाला रास्ता ज्यादा सही है। ऋषिकेश तो काफी अच्छी जगह है और मन लगने वाली भी, लेकिन उस समय हमे बिलकुल भी मन नहीं लग रहा था। सवारी भर के हमारी बस फिर आगे बढ़ चली। कभी हम दोनों के बिच बातचीत होती या फिर दोनों बहार के नज़ारे देखने में व्यस्त हो जाते। समय कैसे बिता पता नहीं। करीब 11 बजे के पास चम्बा में बस रोकी और बोला गया की कुछ खाना पीना है तो खा लो, यहाँ बस करीब 20 मिनट रुकेगी। इसके बाद कोई ब्रेक नहीं होगा, बस सीधे उत्तरकाशी ही रुकेगी।

हमने ना तो सुबह से ब्रश किया था और ना दिन चर्या वाले काम। समय और पेट की नजाकत को देखते हुए हम दोनों में थोड़ा बहुत ही खाने का निश्चय किया। रोहित की नज़र सबसे पहले चौमिन पे ही जाती है और वहाँ भी ऐसा हुआ। चल, चौमिन खाते है, मैंने कहा- "मुझे नहीं खाना, तू खा ले"। उसका जवाब था- "तू नहीं खायेगा तो मैं भी नहीं खाऊंगा"। मैंने कहा- "ये क्या बात हुई"। तो फिर सबसे पहले हमने समोसे चटकाए, फिर एक प्लेट चौमिन। दोस्त की बात रखनी पड़ती है। और वापस बस में आ के बैठ गए। चम्बा आबादी वाला क्षेत्र है, तो बहुत सारे सवारी वही उतर चुके थे। बस वाले ने फिर से आवाज़ लगा-लगा के बस की खाली सीटों को फुल किया और फिर बस चल पड़ी।

चम्बा से आगे आने के बाद, हमे टिहरी डैम रिज़र्वर दिखने लगा जो की भागीरथी नदी पे बना हुआ है। बहुत ही सुन्दर नज़ारा था वो भी, एक तरफ ऊँचे पहाड़ साथ पहाड़ो के टेढ़े मेढ़े रास्ते और दूसरी तरफ शांत पानी। टिहरी डैम भारत का सबसे ऊँचा तथा विशालकाय डैम है। इस डैम का मुख्य मकसद बिजली पैदा और सिचाई करना है। टिहरी डैम में कई सारे खेल प्रतियोगिता भी होती है और ये भी एक अच्छी जगह है अगर आपको पानी वाले खेल पसंद है तो। लोग पानी वाले खेल दूर दूर तक जाते है लेकिन पहाड़ो में इसका आनंद कुछ और ही है। एक-दो दिन काफी है इस जगह के लिए लेकिन हमारी मंज़िल अभी कुछ और थी। हमने अपने मोबाइल से कुछ फोटो भी ली। पहाड़ो में आपने एक बात पे जरूर ध्यान दिया होगा, अगर कोई अच्छा सीन आया और आप उसे अपने कैमरे में कैद नहीं कर पाए तो आपको दूसरा मौका भी मिलेगा। रास्ते भर, मोबाइल पे गूगल देवता की मदद से हमे आस पास का जगहों का नाम पता चलता रहा लेकिन मोबाइल की बैटरी बचने के चक्कर में वो भी बंद करना पड़ा। बस में कभी नींद आती तो थोड़ा सो भी लेते। आखिर सफर जो लम्बा था, आराम भी करना होता है।

डैम का नज़ारा 
अब हमारी बस चिन्यलिसौर होते हुए धरासू पहुंचने वाली थी। यहाँ हमे पता चला की यमुनोत्री का रास्ता यहाँ से अलग हो जाता है। यहाँ से करीब १ घंटे और लगने वाले थे उत्तरकाशी पहुंचने में। अब धीरे-धीरे सब्र का बाँध टूट भी रहा था कही। बस अनदेखी पहाड़ो की खूबसूरती ने हमे एक साथ बांधे रखा था। जैसे जैसे शहर नजदीक आने लगा वैसे वैसे लोगो की रास्ते में उतरने की संख्या भी ज्यादा होने लगी। खुन्नस भी बहुत आ रही थी, क्यूंकि हर उतरने वाले साथ हमारी उत्तरकाशी पहुंचने का समय बढ़ने लगा था। फिर हमारी बस एक सुरंग में घुसी, तभी रोहित ने कहा की उमेश ने अपने ब्लॉग में ऐसा ही लिखा था "सुरंग पार हुई और हम एक अलग ही दुनिया में प्रवेश कर चुके थे" और सच में उस सुरंग से निकलने के बाद हम अलग दुनिया में ही थे। ये था उत्तरकाशी, आज की हमारी मंज़िल।

समय देखा तो 3:15 हो रहे थे। कंडक्टर वाले भैया ने कहा की माफ़ करना थोड़ी देर हो गयी। हमने कहा कोई बात नहीं, 15 मिनट ही तो ज्यादा हुए है और उन्हें राम राम कहते हुए हम निचे उतर आये। उमेश ने हमे पहले ही एक सस्ता होटल का नाम बता दिया था। 5 मिनट के अंदर हम उस होटल में थे। हमने पूछा की 1 कमरा मिल जायेगा, होटल के मालिक ने कहा की कितने दिन रुकना है, हमने कहा 2 दिन वो भी दूसरे दिन सुबह ही निकल जायेंगे । उन्होंने कहा की पहले कमरा देख लो, उसके बाद बात करते है। कमरा ठीक ठाक ही था, हमे मतलब ही कितना था, दिन में नित्य क्रियाओ से निवृत होना और रात में सोना। उस हिसाब से सही था कमरा। कमरा देखने के बाद उन्होंने कहा की 500 लगेंगे। हमने पूछा 2 दिन का, उन्होंने कहा "हाँ"। मन में अजीब से खुशी हुई इतना सस्ता कमरा। रोहित ने इतने में ही कहा की कुछ सही लगा लो (मेरा दिमाग ठनका, विचार आया की अब क्या फ्री में रहना है)। फिर हाँ ना करते हुए 400 में तय हुआ (हिसाब करो तो 1 व्यक्ति का 100 वो भी एक दिन का)। हमने रूम की चाभी ली, पानी की बोतल भरी और अपने रूम में पहुंच गए।  हमने तय किया अभी तुरंत फ्रेश हो, तैयार हो के आस पास घूम आते है और कल सुबह हरसिल जाने के जानकारी का भी पता कर लेंगे। करीब 40 मिनट में हम दोनों तैयार थे उत्तरकाशी भर्मण करने के लिए।...


बाकि अगले भाग में...

तब तक कुछ तस्वीरों का आनंद उठायें ...


रास्ते में कही

खूबसूरत नज़ारा 

फिर से 

दूर से कुछ ऐसा दिखा 

डैम का नज़ारा 

फिर से डैम 

ये आदमी बैठ के क्या कर रहा है, मुझे नहीं पता